पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/२१

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।। भूमिका। ।

  • महाराज वहादुर ने भी समझा कि ओः यह ग्रन्थ तो हमारे यश:समुद्र की मर्यादा-तोड़ सारे भूवलय
  • को प्लावित कर देगा वस गद्गद हो षोड़शोपचार उपहार से कबि जी के सम्मुख उपस्थित हुए । कहिये

तो क्या कभी संभव है कि ऐसे एवाव्यक्तिपरायण ग्रन्थ के यढ़ने पढ़ाने का उत्साह किसी काल में भी सर्वसाधारण को हो ? क्या ऐसे ग्रन्थ का एक अल्पभाग भी कभी किसौपाठशाला में पढ़ाया जा सका, है ? ऐसा ग्रन्थ किसी पुस्तकालय में विनामूल्य ठेस दिया जाय तो भी क्या किसी का 'एक पृष्ठ से अ- धिक पढ़ने में जी लग सकता है ? तिसपर भी प्रायः महाराज लोग कुछ बिदाई देके उस कवि से उस मुद्रित ग्रन्थ की सव पोथिया ले अपने पुस्तकालय में बन्ध कर घोड़ा सा बैट बूट नाटकलीला समाप्त करते हैं, कवि जी को तो मुट्ठी गरमाने से काम वे तो पोथी माथे मढ़ बिदाई ले लम्बे हुए और - महाराज अपना यश अलमारों में फैला रहे हैं ॥ भला यह तो देखना चाहिये कि जिन विक्रम ऐसे

  • महाराज का यश आज तक घर घर व्याप्त है और जिनकी सभा में कालिदास, बरुचि, वराहमिहिर,
  • ऐसे विद्दचक्रवर्ती रहते थे उनकी प्रसिद्धि में क्या उनी की वर्णना के ग्रंथकारण हैं आज काल के हैं।

यशोऽर्थी लोग आंख फाड़ के देखें कि जिन महाराज जयसिंह ने जिस 'संतसई पर '७००।/"सांत सौं मुहर पारितोषिक दिया उन महाराज के वर्णन में 'उसी अन्य में के दोहे हैं और फिर भी उनका ये आज तक कैसा जाज्वल्यमान है? इसको एक बात कहते बेड़ी हँसी आती है। एक बड़े नाभौ महाः । राज को एक प्रसिद्ध कवि ने ग्रंथ समर्पित किया महाराज ने चौंकार किया, ग्रन्थ 'छप गया, 'बिदाई के समय एक मुसाहब बोल उठे कि “हजुर की तारीफ तो सिर्फ दो हौ पेज में होगी फिर बड़ी 'बिदाई क्या ?" चलो महाराज ने भी समझा 'कि ठीक तो है दो पृष्ठ' की'कुछ दक्षिणा दे दी जाय 'और' अन्त में -

  • यही हुआ ॥ परन्तु धन्य विहारी कवि जिनने झूठौ तारीफों से ग्रंथ न भरा और धन्य घे महाराज

४] जयसिंह जिनने प्रशंसा पर ध्यान न दे कर पांरितोषिक दिया। | हमको बिहारी जो के एक दोहे पर आश्चर्य होता है कि जयसिंह का सौन्दर्य वर्णन उनने क्यों किया। वह दोहा यह है- | ( प्रतिबिम्बित जयसाहदुति दीपति दर्पनधाम ।.. | सच जग जीतन क कियो कायव्यूह जनु काम ॥'. परन्तु अनुभव होता है कि जयसाह ने कहा होगा कि हमारे सौसमहल-पर-कोई दोहा-बनाओ और उनके कहने अनुसार बिहारी जी ने यह दोहा लिखा हो । यह सौसमहल अभी तक आमेर में विद्यमान है। इसमें सहस्रों” काच के टुकड़े जड़े हैं। उस घर में घुसते ही अपनी सहस्रों मूर्ति

  • देख पड़ने लगती हैं ।

. 2344 आमेर ही महाराज मानसिंह का पुराना राज्य है। जयपुर की तो पीछे दूसरे महाराज सवाई जयसिंह ने सं० १७३४ में” श्रावण में नव दो थौ (-इतिहास राजस्थान) और ये जयसिंह तो-प्रथम-धे ।