पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/२११

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विहारीविहार ।। चकी जकी सी व्है रही बुझे बोलत नीठि। कहूँ दीठ लागी लगी कै काहू क दीठि ॥ ४२९ ॥ कै काहू क दीठ लगी है नवल तिया की । दीठि लगत है नाहिँ एक हूँ जाम निसा की ॥ घने निहोरे किये तकी सी रहति थंकी सी । सुकवि भयो धाँ कंहा व्है गई चकी जकी सी ॥ ५१३ ॥ मरी डरी कि टरी बिथा कहा खरी चलि चाहि । । रही कराहि कराहि अति अब मुख आहि न आहि ॥४३०॥ ।

  • । अव मुख हि न हि आह की स्वारत कोरी । साँस न जाने परत

कॅपत छाती अति थोरी॥ नारी धरकत नाँहि सुकबि देखत घरी घरी। जरत देह सौ जानि परत नाहिँ न अहै मरी ॥ ५१४ ॥ • गनती गनबे तें रहै छत हू अछत समान । अलि अब ये निसि ओस लौ परे रहौ तन प्रान ॥ ४३१ ॥

  • परे रहो तन प्रान पाहुने चार दिना के । रहि न सकत राखे हु पै ये

घनस्याम विना के । ठानत कहा उपाय रही अब सब बनिवेतें । सुकबि । काज कछु नाहिँ साँस गनती गनिबे तें ॥ ५१५ ॥ . *बिरहबिपतिदिन परत ही तजे सुखनि सब अङ्ग।। रहि अब लें +ऽब दुखी भये चलाचली जियसङ्ग ॥ ४३२॥ चलाचली जियसंग भये अव दुख हू आली । सूने से हिय कछू जानि । नहिं परत कुचाली ॥ नीच मीच हू मोरत मुख आवत नहिँ या छिन। सुकाव ।

  • भये सव विमुख परे यह विरहविपति दिन ॥ ५१६ ॥

० यह दोहा कृष्णदत्त कवि के ग्रन्थ में नहीं है। " व = अब । । 4444444