पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/२१३

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। विहारीबिहार।

  • मारयो मनुहारनि भरी गरियो खरी मिठाहि ।

वाको अति अनखाहटौ मुसकाहट बिन नाहि ॥ ४३६ ॥ मुसकाहट विन नाहिँ हटक तिय की पेखी ।चटकि चटकि हू उठी भौंह मटकनि पुनि देखा ॥ अनबोलो करि लियो तऊ दूनो रस धारयो । मुरि बेठे हैं सुकबि मैनबानन मन मारयो ॥ ५२२ ॥ लहि रति सुख लगियै हिये लखी लजौहीं दीठि। | खुलति न मोमन बँधि रही वहै अनखुली दीठि ॥ ४३७ ॥ वहै अनखुली दीठि कपोल हु भरे सेदकन । कछु पारो मुख थके साँस । ॐ यह दोहा अनवर चन्द्रिका में नहीं है। उसकी मार भी मनोहरता से भरी हैं, उसकी गाली । भी मीठी है, उसका क्रोध भी बिना मन्दस्मित नहीं ॥

  • इस दोहे के तुकान्त में दोनोवेर दौठि' शब्द आया है यह ब्रजभाषा के कवियों की परिपाटी
  • के विरुद्ध है ॥ हा” यह कहा जा सता है कि तुकान्त में चरम भाग की आहुत्ति और उसके पूर्व भाग

३ का सादृश्य होना चाहिये ( इसी को फारसी वाले काफिया औ रदीफ कहते है ) सो यहां दौठि पद

  • की अहत्ति है और दीर्घ इकारान्त होने से लज हीं तथा अनखुली पद का सादृश्य है । यदि कोई
  • कहै कि किसी पद का सादृश्य और किसी पद की आवृत्ति तो फारसी उर्दू में होती है (जैसे “मये

पुरजोर तहकीकं के दरमौना नमी गुञ्जम् । दुरे पुरताब ना आवम् के दर दर्या नमी गुञ्जम्” यहां नमी - । गुञ्जम्' आत्ति औ ‘मौना' ‘दर्या सादृश्य । इत्यादि) यह चाल हिन्दी की नहीं है, तो सो भी नहीं । क्योंकि प्रायः हिन्दी कवियों ने भी ऐसा ही कहा है जैसे देव “यो सखी सावन न आये प्रान प्यार याते मैह न वरज अाली गरज मचावें” ना । दादुर हटकि बकि बकि के न फोरै कान पिकन फटकि मोहि सबद सुनावै ना ॥ विरह बिथा हैं हों तो व्याकुल भई हों” देव जुगनू चमकि चित चिनगी उड़ावै ना। चातक न गावें मोर सोर ना मचावे घन घुमड़ि न छावें जौलौं” स्याम घर आवै ना ॥” | परन्तु वस्तुः दोहे में पदावृत्ति भाषा कवियों को अङ्गीकृत नहीं है ॥ सच पूछिये तो यह केवल ललू ३ लान्न की भूल है कि उन दोनों वैर ‘दीठि' शब्द मान के ही टीका की और अपने स्वयं प्रेस में ऐसा

  • ही छापा पर जो उनसे भी प्राचीन हरिप्रकाश, औ संस्कृत टीकादि हैं उनम पूर्वाई के अन्त में ‘नोठि'।
  • पाठ है । ।
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