पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/२१८

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१३५ विहारविहार ।। । दृग लखियत भीनो ॥ सारी कारी घटा छटा छहराइ रही लंसि । सुकवि कबहुँ यह छिपत कबहुँ प्रगटत है मुखससि ।। ५.३८ ॥ | पचउँग सँग वैदी बनी खरी उठी मुख जोति ।। पहरे चीर *चुनौटिया चटक चौगुनी होति ॥ ४५२ ॥ चटक चौगुनी होति चीर चुनवट को धारे । झीनीअँगियादमक दस-

  • गुनी देत सँवारे ॥ सुकवि सौगुनी सोभा साधी अधर मिसी सँग । सहसगुनी

4 दुति करत पुहुप को हार हु पचरंग ॥ ५३६ ॥ खरिपनिच वृकुटी धनुष बधिक समर तजि कान । हनत तरुणमृग तिलकसर सुरक भाल भरि तान ॥ ४५३ ॥ सुरक भाल भरि तान हनत विनु वान चलाये । काढ़ि करेजो लेत दूर ही सों दिखराये ।। कवरीवन में छिप्यो जीय लुटत वरजोरी। सुकवि लगी हिय में चोट कहाँ ते मुख निरखौ री ॥ ५४० ॥ नासा मोरि नचाय दृग करी कका की साह ।। काँटे लीं ककत हिये गड़ी कटीली भौंह ॥ ४५४ ॥ गड़ी कटीली भह मनहुँ तरवार काम की। नागिनछौनाजुगलसरिस विप भरी वास की । कवि अजव तुअ बात करत जादू वरारीं । मदनमन्त्र सों जपत मुलकि मुरि नासा मोरी ॥ ५४१ ॥ | पुनः । । में भह कटीली गरचीली ने कटु सतराई । टोदी पे कर देई झुलानिया झ- सकि कुमाई ११ ग्रीवा कछु लवाड़ करत सी कछ कछु होला । तिरखें ताकि में बलि राई लुकधि के सुधि चुधि नासा ।। ५४२ ॥ ३ नटन। '• यह दोह: इरिश्मद के अन्य में नहो ।