पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/२२३

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१४० . विहारीविहार । वाडौँ बलि तोहगन पर आले खजन मृग मीन। आधी डीठि चितौन जिहिँ किये लाल आधीन ॥ ४६९ ॥ किये लाल अधीन छनक मैं देखत देखत । जिनको दोउ दृग भृकुटि मध्य कै जोगी पेखत। नैनन पै राखत जिहिँ क कमला जुग चारों। सुकवि । तिनहिँ बस करत जगत तुव दृग पै वारौं ॥ ५५७ ॥ किये लाल अधीन सहस दृग जिनहिँ न पावै । तीन नैन काँ मुँदि सदा सिव ध्यान लगावै ॥ आठ नयन स बिधि हुँढत जै जै कहि चारों । कोरि सुकवि की कविता लै तो दृग पै वारौं ॥ ५५८ ॥ | पुनः

  • जे तब होत दिखादिखी भई अस्मी इकक ।

दुगै तिरीछी दीठि अब व्है बीछी को डाँके ।। ४७० । । । व्है वीछ को डॉक लगत जऊ नैनन माहीं। तऊ ज्वाल तन बढ़त अङ्ग । अंग संव अकुलाहाँ । मन्त्र जन्त्र नहिँ चलत गुंनी हारे जे हैं सब । सुकाव - नैन भये गरल सुधा साँ साने जे तव ॥ ५५ ॥ बेधक अलियारे नयन बेधत कर न निषेध ।। बरबस वेधत मो हियो तो नासा को बेध ॥ ४७१ ।। तो नासा को वैध आपु वेध्यो है जैसें । औरन हूँ को बेधि रह्यो है निरदै । तैसें । आपु गयो सो औरन खोअत कौन निषेधक । सुकवि याहि स मनहुँ वेध हू व्है गये। वेधक ॥ ५६० ॥

  • जो उस समय देखा देखी होते ही ‘इक अँकि एक अंकी हुई, जंाची हुई अमृत सौ( दृष्टि ) धौ ।

। वही अव तिरछी डीठि विछू का डङ्ग हो के ‘दगै’ जुलाती है । (सं.) इश्चिक प्रा० बिछुओ,, ब्रजभा० से दी छौ ॥ ( दो० ४७३ ) ............. ... . ...... ।