पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/२२५

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बिहारीबिहार । ; बरन बास सुकुमारता सबै बिधि रही समाय। पखरी लगी गुलाब की गात न जानी जाय ॥ ४७६ ॥ | गात न जानी जाय किते. ढिग आई देखिये । चौगुन लेइ प्रकास धारि चसमा हु पेखिये ॥ बिनु सूखे नहिँ होत वासु को कछु अनुसरन । रङ्ग रङ्ग मिलि गये सुकबि दोऊ हैं, सुबरन ॥ ५६५ ॥ | गात न जानी जाइ नाहिँ ज़ब लाँ कुम्हिलानी। भरन हूँ की झपट पाइ जब ल न खसानी ॥ तब ल को लखि सकै ग्वार के अंग अति सुन्दर । धन्य धन्य यह सुकवि जासु पै रीझत नटवर ॥ ५६६ ॥ लोने मुख दीठि न लगे य कहि दीनी ईठि। दूनी व्है लागन लगी दियँ दिठौना दीठि ॥ ४७७॥ | दियँ दिठौना दीठ लगी दूनी व्है लागेन । लखि लखि लागे सबै सराहन । निज निज भागन ॥ रुकत न घूघट दिये और बैठे गृहकोने। चरसि रही हैं।

  • डीठ सुकवि प्यारी मुख लोने ॥ ५६७॥. . .. ।

• पिय तिय स हँसि कै कह्यो लखें दिठोना दीन । । । | चन्दमुखी मुखचन्द नैं भले चन्द सम कीन ॥ ४७८ ॥ । भलो चन्दसम कीन सुढङ्ग कलङ्क लगायो । बिना कलङ्क कलङ्क हुतो सो

  • कलङ्ग मिटायो । अब एकै डर अहै राहु जनि कोपे जिय साँ। या स - ।

धेक ढाँपि सुकवि भाष्यो पिय तिय सौं ॥ ५६८ ॥ .. . लसत सेतसारी ढक्यो तरल तरचोना कान। पस्यो मनो सुरसरिसलिल मनो बिबिम्ब बिहान ॥ ४७९ ॥ ।

  • कल का न होनाही कलङ था अर्थात् चन्द्र की समता में कसर यौ।