पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/२२६

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१४३ 443AAAAAAAAAAA334 - बिहारीविहार ।। विम्व विहान हिँ पस्यो गगन सुरसरि की धारा । मारुतसुत के अासत्रास पावत नहिँ पारा ॥ सुकवि सरम सौ सीतल है जनु गयो तेज जस । अधर विम्बसरवरि के पाप पखारत सो लस ॥ ५६६ ॥ । - - -- लसै मुरासा* तियस्रवन य मुकुतनि दुति पाई। | मानो परस कपोल के रहे सेदकन छाई ॥ ४८० ॥ रहे सेदकन छाइ किध तारन गर्न आयो । किधों सत्वगुन उमगि चाँधि - मण्डल छवि छायो । रसिकन के मन बँधे किधौं आसा के पासा । झुलि रहे हैं। हैं किंधे सुकवि ध लसे मुरासा ॥ ५७० ॥

सालति है नटसाल सी क्यों हूँ निकसति नाहिं । । मनमथनेजानोंक सी ख़भी खुभी मन माहिँ ॥ ४८१ । । | खुभी ख़भी मन माहिँ खूब खुवी तरसावति । ऊबी डूवी सुमति अजूवी है घबरावति ॥ धीरजज्ञानविवेक आदि छन हीं गहि घालति । सुकवि न कळू उपाय सामनो परते सालति ॥ ५७१ ॥ ३ सभी ख़भी मन मेंहि करेजे घाव बढ़ायो । दरद हीय में किया नैन साँ ३ नीर वहायो । घबरायो सव अङ्ग वैद की कळू न चालति । सुकवि दुर कर जुलुमभरी जादू कै सालति ॥ ५७२ ।। झीने पट में झुलमुली झलकति ओप अपार ।। सुरतरु की मनु सिन्धु में लसति सपल्लव डार ॥ ४८२ ॥ - ससति सपल्लव डार लहरेस अति लहराई । ऊपर पूरनचन्द्रविम्व सीने •राबरी । भुरामा तरको ( समान )