पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/२२८

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विहाराविहार। दुख़ के भाड़न । अधरअमृतहित ललचि गरल सो पुँटि रह्यो घन्। सुकवि । सयानी वारो हूँ गयो तो लखि मो मन ॥ ५७७ : ......... ललित *स्यामलीला ललन चढ़ी चिबुक छवि दून । मधुझाक्यो मधुकर परयो मनो गुलाब प्रसन ॥ ४८७ ॥

मने गुलावपासून ठठाक भौंरा सरसायो । कि बालविधुविम्ब सुक्र को ।

वेध सुहायो । मानिकथारीधरयो फूल अतसी को सो बलि । सुकवि गोदना । लसत नेक चाल देखो तो बलि ॥ ५७८., . , . , ..... .. सरउदित हू मुदितमन मुखसुखमा की ओर । । चितै रहुत चहुँ ओर तें निचलचखनि चकोर ॥ ४८८ ॥ । निहचलचर्खानि चकोर चाहि चोंचने चपलावत । चित दीने रुचि रुचिर। अचञ्चल मोद चढ़ावत ॥ ऐसो आनँद लहत लह्यो जो अज हुँ न कित हैं। सुकधि रैन ही समझत है इत सूर उदित हू ॥ ५७६ ॥ +पत्रा ही तिथि पाइयत वा घर के चहुँ पास । नित प्रति पून्यो ई रहै आननओपउजास ॥ ४८९ ॥ । आननोपउजास रहत नित ही हाँ पुन । झुके चकोरन वृन्द माद पा- वत दिन दून। कुमुद हु करत विकास पाई चाँदनी उमाही । सुकवि सबै भ्रम परेंसु तिथि लखिये पन्ना ही ॥ ५० ॥ छप्यो छवीलो मुख लसै नीले अंचल चीर । मनों कलानिधि झलमले कालिन्दी के नीर ।। ४९० ॥ कालिन्दी केनीर परयो जनु अङ्क धोइये । तियमुखसमता लहन मलिनता । शोड़ना, यह दो इस अदि के ग्रन्थ में नहीं है। 444444444444444444