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बिहारी बिहार ।

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बिहारीबिहारः।। * :: :: *गाढ़े गाढे कुचनि ढिलि पिग्रहिय को ठहराइः। । । उकसौहँ ही तो हिये सबै देई उकसाई ॥४९८॥ सबै दई उकसाइ प्रीति प्यारे जिय उकसी। साँसति उकसी सौति साँसतात आवत रुक सी । उकसे चहूँ चवावे रूप उकस्यो रँग बाढ़। उकसी कमें विता सुकंबिने की पूरी रेस गाढ़े ॥ ५८६ ॥ .. ::: ! :: : दुरक्षित कुँच बिच कंचुकी चुपरी सारी सेत।::::::: कबिआँकनि के अर्थ लौं प्रगट दिखाई देती ४९९ः॥ ---- प्रगट दिखाई देत नाहिँ यह छिपत छिपाई । झीनो आँचर परे दमकि . न दूनी छबि छाई ॥ रतनने की पुनि चमक हहा काके उंर फुतिन । सुकवि । * दई तू दुरवत कही दुराई दुरति न ॥ ५० ॥ :::::::: । .. भई जु तनछबि सबनमिलि बनि सकै सुन बैन । आँगओप आँगी दुरी ऑगीओप दुरै न॥२०:5।।::: | आँगओप दुरै न अंगदुति मिलि भई दुनी। लखते हिय हरि लेत करत जनु सुधि बुधि सुनी ॥ टारे टरै, न नैन रही ऐसीं सोभी फबि । सुकचि बरमें नि नहिँ सकत बसन' मिलि भई जु तनछबि ॥ ५६१ ॥ ..... *सोनजुहीसी जगमगै अंग अंग आननजोति । : । । सुरंग कुसुंभी कंचुकी दुइँग देहदुति होति ।। ८०१॥ दुइँग देहदुत्तिःहोति.कुसुभी सोनजुही मिलानौरँगभरिभामिनी::दिखावंति सौ सँग हिय रिलिजदरँगसौतिन करीत लंसति तुतीय तु ही सी। * सुकवि रँगीली रङ्गसँग़ी सी सोनजुही सी. ५६२॥ :::::::::::: | ॐ यह दोहा हरिप्रकाश में नहीं है । यह दोहा हरिप्रसाद के ग्रंथ में नहीं है।" ".. -:

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