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बिहारी बिहार ।

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विहारविहार ।। १५७ 'बड़ो उर्जरों गेह भयो ही रहत रैन दिन । लखि चमकीले अङ्ग परी हू तोरि * रही तिनः ।। सुकवि पियादृग पथिक भये हैं तिया रूपमग । छनक छनक ही चमक उठत हैं अङ्ग अङ्ग नगं ॥ ६२१ ॥.. . अङ्ग अङ्ग प्रतिविम्ब परि दरपन से सब गात । | दुहरे तिहरे चहरे भूषन जाने जात ।। ५३० ॥ भूपन जाने जात चौहर और पचहरे । मेचक कुंचित केस घने अति सोहत छहरे ॥ सूही चादर ओढ़त ही रँग दमकत हैं अति । सुकवि पिया प्रति विम्ब परत है अङ्ग अङ्ग प्रति ॥ ६२२ ॥ | पुनः | भूपन जाने जात विविध इमि अङ्ग सफाई। सखीवसनदुतिपरत रवा रँग । ५ होत निकाई ॥ फूल भरी सी होत सुकवि फुलवारी के मग । सहसनैन छवि । । चेनत पियादृग परत अङ्ग अंग ।। ६२३ ॥ : | अङ्ग अङ्ग छवि की लपट उपजति जाति अछेह ।। खरीं पातरी ऊ त लगे भरी सी देह ॥ ५३१ ।। लगे भरी सी देह चलत जनु फूल छरी सी । थाह न दीसी कडू चढ़ी रस। रासिनदी सी ॥ बरनि सके इहिं और सुकवि विन कहा कौन कवि । झीने पट है भेटि फेलि रही अङ्ग अङ्ग छवि ॥ ६२४ ।। रच न लखियत पहिरि यों कंचन से तन चाल । कम्हिलानी जानी परें उर चम्पे की माल ।। ५३२ ।।। उर दम्पे की माल परत जानी कुम्हिलाये । के अनुमानी जात कल के न* ** ! " तोरना, परमानना र दलित का चि । ।