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बिहारी बिहार ।

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विहारविहार ।। न छवि छाई । दाव दावदी को न लगै भई दरिद हरिद वर । सुकवि कहो क्यों सके यासु अवकेसर कैंसर ॥ ६२६ ॥

  • रूप लग्यो सव जगत को तोतन अवधि अनूप है : दृगनि लगी अति चटपटी मो दृग लागे रूप ।। ५३६ ॥ मोदृग लागे रूप चटपटी दृग अति लागी । लगी चटपटी माहिँ चाह स । उछाह अभागी ॥ चाह माहँ पुनि आह आह भयो दाहप्रचारू। सुकवि लगे । में नहिं दाह चाह तो छवि है मारू ।। ६३० ॥

|: भूषनभरि सँभारिहै क्यों यह तने सुकुमार । सधे पाय न धर परत सोभा ही के भार ।। ५३७ । । | सोभा ही के भार झुकी अति रहत पियारी । तेल फुलेल लगाइ ताहि का * चाहत मारी । काजर को नहि काम अपु हैं दृग गत दूपन । सुकवि सँभ- । रिहे नाँहि देत क्यों या की भूषन ।। ६३१ । । ...न जक धरत हरि हिय धरे नाजुक कमला बाल । भजत भार भय भीत है घन चन्दन वनमाल ।। ५३८ ॥ घनचन्दन वनमाल भार सी भीषन मानति । चन्दवाँदनी चमक चण्डकर चपला जानति । कोकिल कलकाकली काल सी कठिन गति करि । सुकवि साँवरी सिसकि रही किहुँ न जक धरति हरि ॥ ६३२ ॥ .. : Ye भोरठा ॐ परन्तु कुरुलिया के लिये उलट के रंका है ॥ • यह टोहा हरिप्रसाद ॐ ग्रन्थ *" ' है । रिदिन ती ददन नायक में ! ६ पुरि जिम सुकुमार पद्मिमी कमला) दान की। ६ Yः ६' र ३ ४ ३ घन्टुन १ घन= घनसार : पृर बनमाल में भी जैसे-भरे को * ** * * * * ६६ न धरतः । { इस नाना अर्थ )