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बिहारी बिहार ।

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बिहारीबिहार। . . कंचुकी कसीलीः ॥ भौंह रसीली मिंसी लसीली चञ्चले दीठी । सुकवि न भूलत मोरन मुख चटपट दै पीठी ॥ ६५५ ॥ दियौ जु पिय लाख चखनि में खेलते फागु खियाल। बाढ़त हूं अति पीर सुं नं काढ़त बनत गुलाल ॥ ५६०॥ . काढ़त बनत गुलाल तऊ नहिँ काढत प्यारी । सहत किरकिरी नैन जात हरि पैःबलिहारी ॥ रंगनंधार कपोल लगी पॉछत नहिँ है संखिः । सुकवि न । झारत अबरख उर पै दियो जो पिय लखि ॥ ६५६ ॥ ; ; 4444444444

  • छुटत मुठि न सँग हाँ छुटी लोकलाज कुलचाल।।

लगे दुहुनि इकसंग ही चलचित नैन गुलाल ॥ ५६१ ॥ चलचित नैन गुलाल लगे दोउन इक सङ्गै । भीतर को अनुराग निकरि । लपट्यो जनु अझै ॥ कौन गौर को स्याम भये दोऊ एक हि रँग । सुकवि । भेद छुटि गयो अबिर के छुटत मुठिनसँग ॥ ६५७ ॥ गिरै केपि कछ कछ रहे करपसीज लपटाई । | डारत मुठी गुलाल की छुटत झूठी है जाइ ॥ ५६२ ॥ | छुटत झूठी है जाइ तऊ सुख देत तैस ही । प्यारी नैननि कुँदि करति सीबी से वैस ही ॥ पाँछति बार हिँ बार कपोलन उँचयोआँचर । नाहीं नाहीं । करति सुकबि तिय कछु कम्पित कर ॥ ६५८॥. .... . ज्यौं ज्यौं पट झटकति हटात हँसति नचावति नैन । : . त्यौं त्यौं निपट उदार हू फगुआ देत बनै न ॥ ५६३ ॥ प्राचीन संस्कृत ग्रन्थो में अबिर गुलाल का नाम भी नहीं मिलता और होरी की भी धूम नहीं में है ॥ रत्नावलौ नाटिका में पिष्टात और सिन्दूर उड़ाने की चर्चा है और होली के बदले बसन्तोत्सव बर्पित है ॥ * नायक उदार हैं तो भी उसे शोभा में ऐसा फसांया है कि फगुआ नहीं देता ॥ 4 4444444444