पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/२५

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| भूमिका ।।

  • ५८०, पैज दो० ३४२ ‘‘कालवूत” दो• ३२२, ‘किबुनुमा” दो • ५६, इत्यादि और यह भी अनुमान
  • में आता है कि इनको उर्दू फार्सी की छोटी २ शेर अच्छी लगी हीं. और उसी ढंग पर इनने दोहे के

छोटे छन्द चुने हो । स्वाभाविक बोलचाल ( महावरे ) को प्रचार भी उर्दू फार्सी में अति प्रधान गिना

  • जाता है सो बिहारी ने भी स्वभावोक्ति का विशेष अाग्रह रक्खा है जैसे कितो मिठास दयों दई इत

| सलोन रूप” दो० ३३३ “आज मिले सु भली करौ भले वनै हो लाल” दो० १६५ इत्यादि और उर्दू फार्सी में जिला अर्थात् एक ही प्रकरण के बहुत से शब्द किसौ. ढंग से आ जाय इसकी अधिक चाल है, सो इस पर भी बिहारी की दृष्टि पड़ी है जैसे;-दो० २७३ ‘दृग उरकत:टुटतं कुटुम, जुरति चतुर सँग प्रीति । परति गठि दुर्जन हिये दई नई यह रीति ।” दो० १३ ‘कत लपटैयत मो गरै सो न उ ही निस सैन । जिहिं चम्पकबरनी किये गुल्लालारंग नैन ॥” इत्यादि । भाषा के ग्रन्थ तो बिहारी कवि ने पढ़े. ही थे परन्तु संस्कृत भी अच्छी जानते थे ऐसा बिदित होता है क्योंकि अपने ग्रंथ में गहिरे संस्कृत शब्द भी झाड़े हैं, जैसे;--“काकगोलक’ दो० २८६, “य

  • रिवेष” दो० ४८१, “जातरूप” दो० ५३५, 'दाध - निदाध’’ दो• ५६, ‘विभावरी-ओक” दो० ५००

“तपन तुल’’ दो ५८२, “वषादित्य” दो० ६०३ इत्यादि । केवल इतना ही नहीं और भी कितनी ही से ऐसे उक्ति हैं जिनसे इनका संस्कृतमाहिब का पूरा पाण्डिल प्रगट होता है ।। | इनने और भी एक दो ग्रन्थ बनाये हैं ऐसा भी कहीं २ सुना जाता है परन्तु लोकप्रसिद्ध यही ग्रन्थ है । इसका कथानक ऐसा है कि बिहारौ कबि विचरण करते हुए आमेर के प्रसिद्ध राजा मिर्जा जयसिंह के दरबार में पहुंचे । परन्तु इन दिनों सहाराज एक नववयस्क सुंदरी के प्रेम में ऐसे बुद्ध थे कि

  • यद्यपि नानूलाल प्रभृति अनेक विद्वान लोग इन्हें सवाई जयसिंह की सभा वाले बतलाते हैं परन्तु

सवाई जयसिंह ने तो संवत् १७५० से संवत् १८०० तक राज्य किया. और बिहारी का सत्सई बनाना संवत् १७१८ का प्रसिद्ध है ( जैसे;-दो० संबत अह ससि जलधि छिति छठ तिथि बासर चन्द । चैत्र ने सास पछ कृण में पूरन नदकट ७०८ ) और मिर्जा जयसिंह ने संवत् १६७४ से संबत् १७२४ वक़ के राज किया ( जयपुर राजपूत स्कूल के हेडमाष्टर चारश रामरत्न लिखित इतिहास राजस्थान के अनुः

  • सार ) इस कारण मिर्जा जयसिंह ही के समय में विहारी कवि का होना सिद्ध होता है । सवाई

अयसिंह के दौवन राजा आयामल थे उन्हीं के यहां कृष्णदत्त कवि थे उनने विहारीसत्सई की कनि । समय ठीक बनाई हैं वे स्पष्ट लिखते हैं कि जयसाह के रामसिंह उनके कृष्णसिंह उनके बिष्णुसिंह हैं और उनके सवाई जयसिंह हुए ( कृणसिंहजी सं० १७३८ में कुंवर पद ही पर परलोक सिंधारे, राजगद्दी के पर न बैठ सके ) ॥ प्रथम जयसिंह के समय में बिहारी थे और अन्तिम जयसिंह के समय में कृष्ण कबि । थे । इनका कथन अप्रमाण करने की कोई युक्ति नहीं है इसलिये निस्सन्देह मिर्जा जयसिंह के हौ समग्र में विचारों में हैं।