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बिहारी बिहार ।

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| १५४ विहारीविहार ।। चुवत सेद मकरन्दकन ल तरु तर बिरमाय । आवत दच्छिन देस तें थक्या बटोही बाय ॥ ५८८ ॥ थम्या चटाहा बाय गाँठसौरभ सिर धारे। कुसुमपरागनगरदभरा अलि कच लटकारे । सिथिल हाइ अँग यालु सुकबि सरनीर छुअत से ! कदलीदलन डुलाइ सुखावत सद चुअत से ॥ ६८७ ॥ रह्यो रुक्यो क्यों हूँ चलि आधिक राति पधारि। हरतु ताप सब योस को उर लागि यार बयारि ॥५८९॥ | उर लगि यार बयार करत हीतल सातल आत । के रोमाञ्चत देह सरस पुनि उपजावत रति ॥ नीवी झटका देत से आँचर ओट जनु गह्यो । सुकवि सुगन्धित अङ्ग अङ्ग सब रङ्ग दे रह्या ॥ ६८८ ॥

  • लपटी पुडुपपरागपट सनी सेदमकरन्द । ।

आवात नारि नबोढ़ लौं सुखद वायु गति मन्द ॥ ५९० ॥ सुखद वायु गति मन्द सु कोमल फूलन तोरत। लता बीच है चलत कवहूं। झुकि अङ्ग मरारत ॥ अलि किङ्किनि झनकारि चाले जनु करत लटपटी । झारत कबहुँ पराग सुकवि जनु पटतट लपटी ॥ ६८६ ॥ चटक न छोडत घटत हू सज्जननेह बँभीर । | फीको परै न बर घटै हँग्यो चोलसँग चीर ॥ ५९१ ॥ | हँग्यो चोलसँग चीर फटै तऊ परै न फीको । परें विपत हू होत सुजनहिय। नित नित नको ॥ कनक तपे हूँ अधिक अधिक सोभा जिमि माड़त । सुकबि । सुजानन प्रीति दुःख हू चटक न छाड़त ॥ ६६० ॥........। | ३ लल्लूलाल इसी दोहे के अन्त में ऋतु वर्णन नामक ढतीय प्रकरण की समाप्ति करते हैं ॥ • वल लोहचूर्ण कृतरङ्गेन रञ्जित बस्त्रम्” संस्कृत टीका ॥ * फौको पर न बरु फटै ऐसा पाठ में होता तो और अच्छा होता है के मञ्जीठ ।। ,