पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

| विहारीचरित्र ।

  • महीनों से रणवास के वाहिर ही नहीं निकले थे । सारा राज काज केवल दीवान के हाथ में था और

सारी प्रजा तथा महाराज के बन्धु वान्धव और अधिकारी लोग महाराज के दर्शन के लिये तरस रहे ॥ । ६ । विहारी ने राजसभा के अधिकारियों से राजदर्शन के लिये वहुत कुछ प्रार्थना की परन्तु सव ने के । यही कहा कि महाराज सभा में आवें और राजसिंहासन पर बैठे तो हमलोग भेट करा सकते हैं और में रनवास में हम लोगों की गति नहीं है। तव बिहारी कवि ने भी देखा कि प्राणभय से कोई महाराज

  • के समीप तक पहुंच नहीं सकता है और महाराज विना चारों ओर से हाहाकार हो रहा है. मंत्रीलोग

भी घबरा रहे हैं पर कुछ कर नहीं सकते हैं। ऐसे समय में मेरे ऐसे बिदेशी की कौन सुधि लेसकता है । एक दिन विहारी ने देखा कि एक मालिन एक दौरो भर के फूल लिये रणवास की ओर जा रही है। से नियों करके जाना कि ये फूल प्रतिदिन महाराज की शय्या पर बिछाने को पहुंचाये जाते हैं। यह देख में उस मालिन से मिल विहारी ने एक कागज पर एक दोहा लिख पुड़िया बधि उन्हीं फूलों में डाल - दिया और वे फूल रणयास में महाराज की शय्या तक पहुंचे । वह पत्र महाराज की पीठ में गड़ा । महा- राज ने निकाल के पढ़ा तो उसमें यह दोहा लिखा घा नहिं पराग नहिं मधुर रस नहिं विकास इहिं ।

  • काल ! अली कनी ही सी रम्यो अागे कौन हवाल ॥” बस यह पढ़ महाराज उस कविता को लिये ही हुए।

से बाहर निकल आये और एक वरस के अनन्तर महाराज के दर्शन का राज्यभर में बड़ा ही उत्सव हुआ। महाराज ने आते ही कहा कि यह दोहा जिसका बनाया हो उसे शीघ्र बुलाओ। तव विहारौ कवि से महाराज की भेंट कराई गई। महाराज ने अादरपूर्वक विहारी कवि से कहा कि आप की कविता वहुत ही मधुर होती है सो आप प्रतिदिन कुछ १ कविता सुनाया कीजिये । विहारी ने स्वीकार किया और दिन ३ कुछ दोहे बनाकर ले जाने लगे और सुनाने लगे । महाराज के यहां इनके पुर्जे नत्थी किये जाने लगे । कई महीनों पौॐ विहारी कवि ने विनय की कि अवं में स्वदेश मथुरा जाना चाहता हूं। तव महाराज की आज्ञा से सब दोहे गिने गये वे लगढग सात सौ थे। तब महाराज ने सात सौ मोहर का पारितोषिक विहारो कवि को दिया । | इस पारितोषिक से बिहारी कुछ भी प्रसन्न न हुए क्योंकि इसी समय पन्ना के राजा छत्रसाल ऐसे गुणग्राही थे कि उनने भूपए कवि को पालकी पर बैठा अपने कंधे से पालकी उठा कर दूर तक पहु चाया था । उनको अपेक्षा जयसिंह बहुत ही बड़े महाराज और विद्वान् थे परन्तु कविता का मर्म समझ सम्मान कुछ भी न किया । तव बिहारी कवि छत्रसाल के वहां गये और अपना ग्रंथ दिखे। कहा कियह ग्रंथ कैसा है मैं इसी को जांच चाहता हूँ ।। - S | जी० ए, ग्रियर्सन साहिए अपने कविचरित्र में योन्तिवते हैं---Chhattral, feeling lin- self qttite unavle t६) 2nd tie X** 25 Sivari lal lone, instead of riving lin none", 1}}}}५३ १११}} }iisp3 .slotter to car: lim j21 his alnilken on this way."