पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/२६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१८१
बिहारी बिहार ।

________________

विहारीविहार ।। सवै हँसत करताल दे नागर ता के नॉव ।। गया गैरव गुन को सबै वसे नॅवारे गाँव ॥ ६१२ ।। वसे नॅवारे गाँव गुनने गौरव को पायो । जो कछु जस सँचयो सो ऊ तहाँ । अाइ आँबायो । झुठो लागन लग्यो भले कोजन हूँ कल्मस । सुकवि गुनन गति सुनत गॅवारे गहकि सवे हँस ॥ ७१४ ।।

  • सोहत सङ्ग समान सौं यह कहँ सब लोग। पान पाक आठनि वनै नैननि काजरजोग ।। ६१३॥ नैननि काजरजाग तहाँ पीक न कळु राजे । ओठन पै त्यों काजररेखा नहिं छवि छाजे १ लुकवि सोई तुम करी हँसी आवत है जोहत । दर्पन लै | के लखो तुम हिं तुमरो मुख सोहत ।। ७१५ ॥
  • जो सिर धरि महिमा महा लहियत राजा राउ।।

प्रगटत जड़ता अपनी मुकुट से पहिरत पाउ ।। ६१४॥ | मुकुट सु पहिरत पाउ मुकुट को का विगरे है । सीस धरे हैं पनही को पद कहा बड़े हैं ॥ अपनी ही पुनि महा मूढता प्रगटे हैं स । जथाजोग व्योहार सुकवि नाहिन के हैं जो ॥ ७१६ ॥ अरे परेवों को करै तुही विलोकि विचार ।। किहिं नर किर्हि सर राखियो खरे बड़े पर पार ॥६१५॥ पार न पाया मद को घानासुर जग जाने । निज इष्ट हि काँ छोड़ि विपति • र परितः । १• यह दो हरिप्रसाद के ग्रन्थ में नहीं है । | १५ च । नयन्त्रिक र परम्मत में नहीं है । हरिप्रकाश में "किहिं मर दि * * * * * * * * "रान्ति' र 'पर पार के ठिकाने **परियार" पाठ में है * * * * * *, इ इष्ट : * तराई का तात्पर्य है कि किम मनुष्य कि अनाग्य - - -