पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/२६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१८४
बिहारी बिहार ।

________________

बिहारीबिहार।..। एक रीति स ॥ ऐसे ही सुख दुःख जासु क होत एकः हित । सो ई धनि है सुकबि ताहि को है निर्मल चित ॥ ७२५ ॥ :. .. : . . . . . चले जाह ह्याँ को करै हाथिन को व्यौपार । । नहिं जानत इहिं पुर-बसै धोबी और कुम्हार ॥६२२॥ धोबी और कुम्हार घरै घर गदहा राखें । हाथी घोरन बात कौन ह्या का साँ भएँ । लखि तुम क तारी दै दै सब हँस हैं जुरि ह्वाँ । सुकवि काज नहिं रहिवे को अब चले जाहु ह्या ॥ ७२६ ॥

  • नर की अरु नलनीर की एकै गति करि जोइ । ।

जैतो नीचे है चलै तेतो ऊँचो होइ ॥ ६२३ ॥ तेतो ऊँचो होइ जिती गतिं नीची आनै । तेत ही बल बढ़े जितो संजम निज ठाने । जेतो थिर है रहै तितो ही होत सुच्छ वर । सुकवि एक से जानि नीर नलः क अरु त्यों नर ॥ ७२७ ॥ --बढ़ते बढ़त सम्पतिसलिल मनसरोज बढ़िजाइ।.. . घटत घटत सु न पुनि घटै बरु समूल कुम्हिलाइ ॥ ६२४ ॥ बरु समूल कुम्हिलाई पातं सूखे है टूटत । केसर सिथिलित होइ सबै झुकि झुकि कैं छूटत ॥ कनिकार, बदरङ्ग होत. सर्व कान्ति जात कढ़ । सुकवि घुटत तऊ नाहिँ गयो जो.नीर सङ्ग बढ़ ॥७२८॥ .. समै समै सुन्दर सबै रूप कुरूप न कोइ । मन की रुचि जेती जितै तिते तिती रुचि + होइ ॥६२५॥ _ तितै तित: रुचि होई. मरम रसिकै पहिचानैः । बिखरे सिमटे कसे गुहे। * * यह दोहा कृष्णदत्त कवि के ग्रन्थ में नहीं है। * यह दोहा देवकीनन्दन टीका में नहीं है। । ' ' के यह दोहा हरिप्रकाश टौका में” और देवकीनन्दन टीका में नहीं हैं। कान्ति ।