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बिहारी बिहार ।

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बिहारीबिहार ।

स्वारथ सुकृत न स्रम बृथा देखि बिहङ्ग बिचारि । बाज पराये पानि परि तू पंछी हि न मारि ॥ ६३६ ॥ तू पंछी हि न मारि पाप को फज तू पहै । क्रूर कुटिल कहवाइ कोटि गारी पुनि खैहै । दूध दही किन खाइ नाम राट करि परमारथ । सुकवि हाय हिंसा सौं हुँदै का तुअ स्वारथ ॥ ७४१ ॥ मरतु प्यास पिंजरा परयौ सुआ समै के फेर । आदर दै दै बोलियत बायस बलि की बेर । ६३७ ॥ बायस बलि की बेर बालियतु आदर दे दै । दूध दही दीजतु है पुनि बहु जतनन कै कै ॥ सुकवि कितिक हैरान होइयतु ग्रास लिये कर । लखियतु नहिं यह हाय नीर बिनु सुआ रह्यो भर ॥ ७४२ ॥ को छुट्यो इहिं जाल परि मात कुरङ्ग अकुलाय ।। | ज्या ज्याँ सुराझ भज्यो चहै त्या त्याँ उरझत जाय ॥६३८॥ । त्य त्यौं उरझत जाय भजन क्य जतन करत है । भजन करत क्यों नाहिँ साँस क्यों बृथा भरत है । सो ई परत इहिँ माहिँ भाग है जा को फुट्यो । सुकवि आस अब छाँड़ि जाल इहिँ परि को छूट्यो ॥ ७४३.॥ नहिँ पावस ऋतुराज यह तज तरबर मत भूल। अपत भये बिन पाय क्या नव दल फल फूल ॥ ६३९॥ . दल फल फूल जु चहै सु कोमल सुभग अन्यारे। तो तजि सर्वस एक बेर तू बिना विचारे ॥ रखि अपनो दृढ़ मूल उखरि मत कछु झपेट लहि। सुकबि में तत्रै पैहै सव सम्पति और भाँति नहिँ ॥ ७४४ ॥

  • भजन = भागने की।