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बिहारी बिहार ।

विहारीविहार । । प्रतिविम्वित जग होय तऊ तेहिं कोउ न देखत । खोजि खोजि थकि किते ताहि अलखे पुन लेखत ॥ सुकवि ज्ञानदृग फारे जैहै अपनि हु सूरति । प्रेमाञ्जन ३ लखहु चहूँ दिसि मोहन मूरति ।। ७७८ ॥ | या अनरागी चित्त की गति समुझे नहिँ कोइ। ज्याँ ज्यों बूड़े स्याम रँग त्या त्याँ उज्जल होय ॥६६५।। । त्याँ त्यों उज्जल होइ स्याम रँग ज्या ज्याँ डुवै । अनैदरस सरसात नाहिँ

  • पुनि कठ्ठ हूँ ऊँचे । और रङ्ग नहिँ चढ़े स्याम लहि सो वड़भागी । सुकवि

समुझि का सके भयो। चित या अनुरागी ॥ ७७६ ॥

  • यह जग काँचो काँच सो मैं समझ्यो निरधार ।

प्रतिविम्वित लखियत जहाँ एके रूप अपार ॥ ६६६ ।। एके रूप अपार सेवन में व्यापि रह्यो है । कर्ता भर्ता हर्ता सोई वैद को हो । सुकवि तेहीं उर धारि सोई है साहव साँचो । भंगुर झूठी चमक भयो है यह जग काँचा ।। ७८० ।।। को कोटिक संग्रहों कोऊ लाख हजार । |मो संपति जदुपति सदा विपति विदारन हार ।। ६६७ ॥ विपतिविदारनहार महामुदमङ्गलदाता । पातकघातक भक्तचित्तचातकजल- दाता ।। निरधन के धन अहें स्याम अरु स्यामा दोङ । सुकवि तिनहिं हम या र क संच का ॥ ७८१ ।। चिपनिविदारनहार छाँइ नर कड़ी संचहु । गाड़ि गाड़ि के रहु भोग । भोग अनि च ॥ चिन्ता दुव सों भर लोक हे तिनके दोऊ । सुकवि बानत भार परी एन २३ काउ ।। ७३३ । । | ३ : मा १९ र २० ॐ निचे इलट ६ इन्चा है। - --- -- -- - =

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