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| बिहारीबिहार। से अकिले कछु चलै न खल की। मन्दिर मसजिद माहिँ रहत पण्डित सय्यद
- तर । राज ऐसो ही रहहु सुकवि जै जै भई घर घर ॥ ८२६ ॥
. . पुनः । हैं राखी जयसाह नाह कोशलधरती के । खिल्लत जिल्लत न्याय करत भाषत सब नीके ॥ ऐसो तुव जसचन्द सुकवि परकासत दिन दिन । बाल सुवेत गावत घर घर हिन्दुनि तुरकिनि ॥ ८३० ॥
- सामा सैन सयान की सबै साह के साथ।
| बाहुबली जयसाह जू फते तिहारे हाथ ।। ७०६ ॥ फते तिहारे हाथ और नहिँ पूरै कामा । जोरि जूह के ज़ह संजै किन बख- तर जामा ॥ तुमरो श्रीअवधेस अहै ऐसो कछु धामा । सुकबि नाम कहि फते करें सेना की सामा ॥ ३१ ॥ हुकुम पाय जयसाह को हरिराधिकाप्रसाद । करी बिहारी सतसई भरी अनेक सवांद ॥ ७०७ ॥ भरी अनेक सवाद देखि सतसईबिहारी । रुकि न सक्यो कुण्डलिया सब
- पै मैं रचि डारी ॥ मुहर दई जयसाह दोहरा के तुक तुक मैं । कोसलदेसन-
रेस मोहि अब कीजै हुकमैं ॥ ८३२ ॥ . .. , पुनः .. | भरी अनेक संवाद, सतसई उदधि सात सी। नवरसतुङ्गतरङ्ग गगन सौं करत वात सी ॥ सुकवि अगाध अपार अर्थं पायो तुक तुक मैं । कुण्डलिया । पुल रची लहत कोसलपति हुकमैं ॥ ८३३ ॥ .-.-
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-.- . ॐ यह दोहा हरिप्रसाद के प्रत्य में तथा अनवरचेन्द्रिका: और शृङ्गारसप्तशती में नहीं है । |: यह दोहा हरिप्रसाद के अन्य में अनवरचन्द्रिका और कृष्णदत्त कवि की टीका में नहीं है ।