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बिहारी बिहार ।

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२१८ बिहारीबिहार। हँसि हँसि रस बस करि लयो लँगर छोहरी दीठ।। निपट कपट उर देखियत ऑखिन हूँ मैं पीठ ॥ ७३४ ॥ ऑखिन हू में पीठि और दोउ बगल निहारी । याही सों है फिरन मुरन समुहावन सारी । कोह छोह अरु मोह सोह इनहाँ मैं सरबस । सुकवि करत । ये मान करत कबहुँक हँसि हँसि रस ॥ ८५६ ॥ संस्कृत टीका के अनुसार। औगुन अगनित देखिये फल को देहिँ न नाखि । नीचे नीचे कर्म सब ऊँची ऊँची ऑखि ॥ ७३५॥ . . ( माधुर्य नहीं है )

  • कालि दसहरा बीति है धरिमूरख जिय लाज। .. दुस्यो फिरत कत दुमनि पर नीलकंठ बिन काज ॥ ७३६ ।। नलकण्ठ बिन काज दुरत क्यों कुञ्ज निकुञ्जन । ज्यौं हम दरसन चहत. छिपत त्या तरुदलपुञ्जन ॥ भयो कहा अभिमान उठत क्य मद के लहरा। सुकवि फेर पछितैहै जै है कलि दसहरा ॥ ८६० ॥ . | कुचढापन यातें बनै दुति सुमेर हरि लीन।

बदन दुरावन क्यों बनै चन्द कियो जिहिँ दीन ॥ ७३७॥ चन्द कियो जिहिँ दीन बीर सो बदन दुरावत । विम्बबिजेता अधरहु काँ। ने पट ऍचि छिपावत ॥ सुकत्नि उचित नहिँ तोहि बहादुर क इमि झाँपन । में हैं ये जनमनचोर भले ही करु कुचढाँपन ॥ ८६१ ॥

  • यह दोहा हरिप्रसाद के अन्य में भी है। दसहरे के दिन नीलकण्ठ का दर्शन विहित है।