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बिहारी बिहार ।

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विहारीविहार । ये दोहे संस्कृत टीका के अन्त में हैं इन पर टीका नहीं है, इति लगाने के बाद हैं ( हमें ये दोहे बिहारी कृत नहीं । विदित होते इसलिये कुण्डलियों नहीं रची ) छपि छपि देखत कुचनतन कर साँ अंगिया टारि । नैननि मैं निरखत रहै भई अनोखः नारि ।। १ ।। सखियन में बैठी रहे पूछे प्रीति-प्रकार । हँसि हँसि आपुस में कहै प्रगट भयो है भार ॥ २ ॥ चित मैं तो कछु चोप सी निपटन लाग्यो नेह । कहूँ दुरै देखे कहूँ कहूँ देखावै देह ॥ ३ ।। लट्र भयो वास रहत वा ही सौं कि रङ । मन मोसों मानी भई वा ही तिय के सङ्ग ॥ ४ ॥ होत कहा कहि हो सखी दंपति की रसरीति ।। वा समये की देखि छवि गयो मदन मुहं जीति ।। ५ ।। नैन परयो पियरूप में रूप परयो हिय माँहि । बात परी सच कान में मोहि परै कल नाहिँ ॥ ६ ॥ घंघटपट के ओट तें निडर रहें मति कोय ।। कुही बाज कुलही दियें अधिक सिकारी होय ।। ७ ।। सल्यो वारिज कुलुमवन पुहुप मालतीचन्द ।। मधुप कहा जीवन जिचे मृली के मकरन्द ॥ ८ ॥ मन मरकट के पग खुल्यो निपट निरादर खोभ । तदपि नचायत सठ हठी नीच कलन्दर लोभ ॥ ९ ॥