पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/३५

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भूमिका ।।

  • अपूर्व माधुर्व टपकता है। इनकी प्रशंसा प्रसिद्ध कबिजयदेव ने भी निज ग्रन्थ में की है कि “शृङ्गारोत-

रसत्प्रमेयरचनैराचार्यगोवईनस्य कोपि न विश्रुतः।” हाल के ग्रंथ का संस्कृतानुवाद गाथासप्तशती का । भी प्रादुर्भाव हुआ । क्रमशः यह संख्या भक्तशिरोमणि तुलसीदासजी को भी अच्छी लगी और उनने दोहों में श्रीरामचन्द्र का भक्तिमय ग्रन्थ बनाया। बिहारी जी की इच्छा हो अथवा न हो पर उनका ग्रन्थ भी सात सौ दोहों का हो पड़ा। इनके अनन्तर और भी कितने ही ग्रंथ सतसई की छाया पर वनै परन्तु बिहारी के भाग्य को किसी ग्रन्थकार ने न पाया । इनके अनन्तर बने ग्रन्थों में प्रसिद्ध ये हैं। चन्दनरायकृत सतसई ( चन्दनराय संवत् १८३८ में थे ) और चरखारी के राजा विक्रमसाही कृत सतसई ( ये संवत् १८४२ से १८८५ तेक विद्यमान धै) । एक सुकबि सतसई नामक ग्रंथ मैंने भी संवत् १८४४ में बनाया था जो साहित्य- सुधानिधि पत्र के द्वारा बिना मूल्य बँटा गया घा-इत्यादि ॥ -