पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/३५४

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संक्षिप्त निजवृतान्त । | मेरा हृतान्त किस काम का है और इसमें उपदेश ही क्या निकल सकता है । तथापि एक तो अपने विषय वा भन्ना बुरा लेख कदाचित् इतिहासविद्या की किसो अंश में सहायता करे यह ससक तथा । मैरे प्रात्मीय महाराजकुमार बाबू रामदेनीसिंह बाबू रामकृष्णवर्मा और नागरीप्रचारिणौ वो सभ्यगण व * प्रोत्साहन से प्रोत्साहित हो मैंने अपना चरखा गया । और ग्रेन्यकारों का स्वछत्त न लिखना विइज्जन में मात्र की दृष्टि में ऊनता है इस भाव से भावित हो मैं लिखने बैंठा सो ढड़ा बढ़ गया तब उसमें संक्षिप्त यह उद्धृत किया है । सरस बिइज्जन इसे भी एक दिहाती कहानी समझ क्षमा करेंगे । * राजपुताने में जयपुर के समीप भानपुर ( मानपुर ) नामक ग्राम चिरकाल से प्रसिद्ध विद्दत्स्थान । है । वहा के प्रसिद्ध ज्योतिर्विद पण्डित ईश्वरराम जी गौड़ थे. * ॥ इनका पराशर गोत्र, यजुर्वेद, तीन * प्रवर, और यहां का परम प्रतिष्ठित भीडा कुल था। इन के प्रपौत्र पण्डित हरिजी रामजी राजाश्रय के * कारण रावत जी की धूला नामक ग्राम में रह गये परन्तु उनके पुत्र पण्डित राजाराम जौ धूला से | सम्वन्ध छोड़ सकुटुम्ब काशी में स्ना बसे और अपने गुणगौरव से काशी के एक प्रसिद्ध ज्योतिषी वाहलाये। इन अनेक सन्तानों में चिरञ्जीवो दोहौ पुत्र हुए, ज्येष्ठ पण्डित दुर्गादत्तजी और कनिष्ठ पण्डित देवी दत्तजी। ये पण्डित दुर्गादत्तजी वही हैं जो कविमंडल में दत्त कवि प्रसिद्ध हैं। इनका जीवनचरित्र * खन्न विलास यन्त्रालय में अलग पूर्ण रीति से छप चुका है ॥ ये कभी जयपुर में भी जाके कुछ दिन रह जाते थे और कभी काशी में भी रहते थे ॥. ये से ० १८१६ ने में सकुटुम्ब जयपुर में गये सो तीन वर्ष, जयपुर ही में रह गये थे। इस समय इनकी तीन कन्धा ती विवाहिता थीं सो काशी में धौं पर ज्येष्ठ पुत्र गणेशदत्त साथ थे। इनके दितीय पुत्र का जन्म जयपुर ही * में सिलावट के मले में सं० १८१५ चैत्र शुक्ल ८ को हुआ ॥ वह ही मैं हूँ ॥.. . सं० १८१६ में भरे पूज्यपिता श्री पण्डित दुर्गादशजी जयपुर से सटुम्ब काशी ये ॥ शास्त्रानु* सार पञ्चम वर्ष से मेरी शिक्षा का प्रारम्भ हुआ ॥ अक्षरारम्भ के साथ ही अमरकोप औ रूपावली सुखाना प्रारम्भ किया गया । मेरो माता भी पढ़ी लिखी थीं और बड़ी वहिने और दादी तथा चाची भी पढ़ी । ध” ॥ मेरे पिता प्रसिद्ध विहान् ही घे ॥ भरी शिक्षा चतुरस्र होने लगी । अर्थात् संस्कृत में कुछ २ काव्य कोष और भाषा में अनेक कवित्त सवैये कंठस्थ हो गये । पिताजी ने अहोरात्र के व्यावहारिक पदार्थों * की संस्कृत में नाम सिखला दिया ॥ में संस्कृत को बात चीत समझने लगा । मैरा खेल यही था कि भु पिताजो के माथे मेला तमाशा देख लेना अथवा पिता ही जी के साथ शतरंज खेलना वा भाति भाति * के इन्द्रजाल के तमाशे करके अपनी माती, भौजाई, वहिन, भानजे, भानजी आदि को प्रसन्न करना । ६ कोई कोई ऐसा भी कहते हैं कि डेढ़ मी दो सौ वर्ष और पहने थे मण्डावाग्राम से आये थे।