पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/३५८

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संक्षिप्त निजवृतान्त ।

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4,4444444444444444444444444535A411 सुंक्षिप्त निजवृतान्त ।। मेरी कुछ मितार की ओर रुचि देख पिताजी ने एक सितारो मंगादौ और कुछ सितार सीखने * का प्रवन्ध भी कर दिया। में इस समय काशिराज की ओर से धर्मसभा का स्थापन हुआ था वहीं छात्रों की परीक्षा होती थी में उममें मैने भी साहित्य में परीक्षा दी ॥ व्युत्पन्न ट्रेवु पण्डित वस्तीराम जी पण्डित सखाराम भट्ट, प्र भृति महानुभावों की कृपा वढी । तेरह वर्ष के वय में मेरा विवाह हुआ । पण्डित कुञ्जनाले वाजपेयी जी से ( जो इन दिनों भरतपुर में राजकार्य में हैं ) मैंने न्यायशास्त्र पढ़ना आरम्भ किया । धर्मसभा * में पारितोपिक के दिन काशीराज महाराज ईश्वरीप्रसादनारायणसिंह बहादुर अपने हाथ से पारि तोषिक बांटते थे सो महाराज ने मुझे अल्पवय में पारितोषिकाधिकारी देख कुछ पूछा जिसका मैंने * झोकबइ उ तर दिया तब महाराज बहुत ही प्रसन्न हुए । उनकै पण्डिन योताराचरगुतर्क रत्न भट्टाचार्य ने कुछ और पूछा उसका भी उ नर मैंने झोक हो में दिया । महाराज ने भट्टाचार्य से कहा कि इन्हें कुछ आप भी पढ़ाइये और हमारे यहां भी जव तव लाया कीजिये । थोड़े दिनों के अनन्तर काशी के प्रधान रईम बाबू ऐश्वर्य देव नारायण सिंह से महाराज ने स्वयं मेरी प्रशंसा की और कहा कि उने खोज कर हमारे यहां लाये । बाबू साहेब मुझे वहां ले गये धीरे धीरे आना जाना रहा । पर गङ्गा पार का - ५ कष्टप्रद दरवार समझ मै प्रायः नहीं जाता था। मैं ने पण्डित ताराचरगतिरत्नभट्टाचार्य के यहां साहित्यदर्पण और सिद्धान्तलक्षण (न्याय ) पढ़ना भारम्भ किया। प्रात:काल प्रतिदिन आत्माबोरेश्वर के मन्दिर में कथा कहता था। जिस समय मेरा बारह वर्ष की वय था उसी समय एक तैलङ्ग हा अट्टावधान काशी में आये और ।। में प्रसिद्ध गुणिप्रिय भारतेन्दु बाबू हरियन्ट्रजी के यहां अपना अष्टावधान कौशल दिखलाया। उस समय पिताजी के सहित में भी उपस्थित था। उनके अष्टावधान होने के अनन्तर बाबू हरिचन्द्रजी ने पण्डित की पोर दृष्टि दे कर कहा कि इस समय काशीवासी भी कोई चमत्कार इनको दिखाताते तो काशी का नाम रह जाता । यह सुन सब तो चुप रहे परन्तु मरे पूज्य पिता पति दुर्गादत्तव्यासजी ने कहा ' : * कि पन्छा यह बालक एक सरस्वती यन्त्र कविता करता है सो देखिये । में मेरे भाग लेग्युनी, मसि, पत्र, खसकाये गये । मैंने एक पत्र पर आठ आठ कोष्ठ की चार पंक्ति । * वाला आयत यन्त्र बनाया और पूछा कि किस पदार्थ का वर्णन हो । ३।३ एरिन्द्र के सहोदर अनुज वावु गोकुलचन्द्रजी ने कौतुकपूर्वक कहा कि इस घड़ी का वर्णन ३ को अवै । मैंने कहा "इन कोठों में जहां जहां कहिये में कोई कोई अक्षर लिग्यता जाऊँ मृधा वाचन में झोक होगा ।” मका भावार्थ तैलङ्ग शतावधान को समझा दिया गया। वे जिस २ कोड में बताते * गये वहा पहा मैं पर निजता गया अन्त में यह झोक प्रस्तुत हुआ। ॥ “घटी सुबत्तानुगतिर्दादशाइसमन्विता । उन्निद्रा सततं भाति वैवीव विन्तगा।