पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/३६०

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संक्षिप्त निजवृतान्त ।

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- संक्षिप्त निजवृतान्त । ( इन दिनों मेरा और भारतजीवन के सम्माक वाचू रामकृष्ण का अधिक सट्ट रहता था । और वाव * देवकीनन्दन वावू असोरसिंह बाबू कार्तिकप्रसाद प्रकृति हमलोगों के अन्तरङ्ग मित्र थे जिनसे आजतक ३ वही घन स्नेह चला जाता है) । कालिज में नाना प्रकार की समस्यायें उड़ती थीं, उनकी पूर्ति से कुछ नाम बढ़ा । पण्डित रामचन्द्रजी से ( इन दिनों अलवर में अध्यापक हैं ) और पं० जानकीप्रसाद ओझा से 4 ( इन दिनों पटना कालिज में अध्यापक हैं ) मेरा अति स्नेह था ॥ प्रति दिन श्लोकबद्ध भाषण का अ भ्यास वढ़ाया यहां तक कि हमलोग तीनों एक ३ घंटा श्लोकवद्ध भाषण करने लगे । महाराज मिथिलेग का राज्याभिषेक समय आसन्न था । उनकै पण्डित युगलकिशोर पाठकजी के द्वारा राजाचा पा कर मैंने महाराज के लिये प्रसिद्ध सोमवत नाटक बनाया ।। सं० १८.३४ में ऐंग्लो की उत्तम बर्ग तक की पढ़ाई मैंने समाप्त की, साथ ही डाइरेक्टर केम्सन साः । इव ने एंग्लो विभाग को उठा दिया ।तब से अंगरेजी का अभ्यास घर हौ में रहा। इसी वर्ष अभिनव * स्थापित काश्मीराधीश के संस्कृत कालिज में मैंने नाम लिखवाया। वहां परीक्षा दी। कालिज की प्र. धान अध्यक्षता जगप्रसिद्ध स्वामी बिशुडानन्दजी के हाथ में थी । इनने यावत्पण्डितों के समक्ष मुझे व्यास पद दिया । ( यों तो मैं पहलेही से व्यासजी कहा जाता था परन्तु अब वह पद और भी पक्का होगया सं० १९३७ में काशी गवर्मेण्ट कालिज में आचार्य परीक्षा नियत हुई । यह परीक्षा और सब परी । के क्षाओं में उत्तम हैं । मेरे संव ग्रन्थ तैयारही छे । चार मास में पुनः जीर्णोद्धार करके परीक्षा दी । इस ३ वर्ष साहित्य में १३ और व्याकरण में १५ छात्र परीक्षा देने गये थे। उनमें साहित्य में केवल में उत्तीर्ण हुआ और व्याकरण में २ छात्र उत्तीर्ण हुए। इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने के कारण गवर्मेण्ट से मुझे में साहित्याचार्य पद मिला ।। शोक का विषय यही है कि सं० १९३१ में तो मेरी माता का परलोक हो गया और सं० १८३० के प्रारम्भही में मेरे पूज्य पिता का भी काशीवास हो गया। इस कारण मैं अति दुःखित था । पिता | के उपरान्त पूरा भार आ पड़ा । ज्येष्ठ भ्राता पूर्वही प्रसन्न नहीं रहते थे। दुष्टों ने झगड़े बढ़ाये । पिता जी यद्यपि स्वयं विभाग कर गये थे तथापि बखेड़ा उठी। ऋण अधिक हो गया और आश्चर्य यह । है कि एमी अवस्था में मुझे प्राचार्य परीक्षा पास करना पड़ा था जो ईश्वर की कृपा ही से हुआ ॥ । | इसी ममय मैंने दर्शनशास्त्र में कलकत्ता उपाधि परीक्षा का भी यत्न किया था परन्तु मार्ग ही में । वैद्यनाय में अति ज्वरस्त हो गया और फिर आया है। घोडो दिनों के अनन्तर पोरबन्दर के गोस्वामी बन्नभकुलावतंस श्री १०८ जीवनलाल जी महाराज में मुझे परिचय हुआ। ये मुझ से कुछ पढ्ने लगे और उनके साथ ३ कलकत्ते गया वहां तीन मसि रहना हुआ । और 414141414 1