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संक्षिप्त निजवृतान्त ।

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संक्षिप्त निजतान्त। इसी बीच वडे बाजार में जिस मकान में गुसाईजो टिके थे उसी में नित्य सभा होने लगी और सना तनधर्म के विभिन्न विषयों पर मैरी २८ वतायें हुई । शीघ्र कविता के भी अनेक कौशल मैंने दिखाये कई सभाओं में बङ्गदैशीय पण्डितों से गहन शास्त्रार्थ हुए । इन सब पण्डित सभाओं के छत्तान्त कले कत्त के इस समय के सारसुधानिधि, भारतमित्र, और उचितवक्ता पत्रों में छपे थे। काशी में आने पर मैंने वैष्णवपत्रिका नामक मासिक पत्र निकाला। पिता जी के परिश्रम से और ईश्वर की कृपा से इस समय मुझे ऐसा अभ्यास हो गया था कि मैं * एक घड़ी अर्थात् २४ मिण्ट में १०० श्लोक बना लेता था। इसको देखकर कोशी ब्रह्मामृतवर्षिणी सभा के सभ्य पण्डितों ने सं• १८३८ में माघ मास में मुझे 'घटिकाशतक' पद सहित एक चादी का पदक ( तगमा ) दिया ॥ | जीविका के अभाव से मैं कष्ट ग्रस्त था और ऋण सिर पर सवार था । सं• १८४० में बनारस का 4] लिज के प्रिंसिपल ने मुझे मधुवनी संस्कृत स्कन का अयक्ष बना दरभंगे जिले में भेज दिया। थोड़े ही : के दिनों के अनन्तर यहां मैंने अनेक सभाओं का स्थापन किया और तिरहुत भाषा का अभ्यास किया। * तथा संस्कृत शिक्षा की व्युत्पादक. अभिनवप्रणाली निकाली जो उस समय तो वहां के निवासियों को * अति अप्रिय लगो परन्तु आज उसी उद्योग के फल स्वरूप बिहार संस्कृत संजीवन समाज नियत है जिसके द्वारा बिहार में संस्कृत का प्रचार है। दो वर्ष श्रम करने में उस समय के कलों के इंसपेर पोप साहेब मेरे सहायक हुये और फिर क्रमशः यह समाज स्थापित हुआ । स्थापित होने के अनन्तर में भी इस सभा की उन्नति के लिये धूम २ कर.राजा महाराजाओं से सहायता दिलवाई।। विहार में आर्य समाजियों ने प्रवेश करना चाहा था और पहले पहल बांकीपुर में इनकी धूम हुई * उसी समय में बुलाया गया। मैं इस समय अत्यन्त आपदग्रस्त था क्योंकि एक तो मधुबनी में मेरा ग्रह है। । दाह हो गया था जिसमें मेरे हस्तलिखित कई एक पुस्तक भस्म हो गये थे और दूसरे सेरा सहोदर * युवा छोटा भाई जिसको मैं स्वयं शिक्षा देता था और बिबाह कराया था और जिसे मैं अपने साथ र खता था शान्त हो गया था । मैं बांकीपुर में आया। तीन चार व्याख्यान कालिज़ में बड़ी धूम से हुए । कालिज के द्वार पर मेला लग गया । बिगड़े हुए । एफ् ए; बौए; ठिकाने अाये । इस लगाव में बांकीपुर छपरा आदि स्थानों में * में कई एक सभायें हुई जिसमें मैं भी बुलाया गया; । इससे प्रार्य समाज तथा ब्रह्म मृमाज का बेग रुक गया ( सं• १८४२ ) । में मधुबनी से उदास हो मैंने इस्तीफा दे दिया। परन्तु तिसपर भी मेरी जान न छुटौ। साथ ही ३ इन्सपेक्टर ने मौजफ्फरपुर जिला स्कन में मुझे हेड पण्डित नियत किया ( सं० १८४३ ); वहा जाने पर धर्मसभा, सुनीतिसभाआदि कई मण्डलियां जमगई । इस समय मैंने पुष्करजी तक, को यात्रा की