पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/३९

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| भूमिका : .. .। “सा राधा भवबाधा विविधामपहरतु नागरिकी । . यस्यास्तनुतनुकान्त्या कान्तः श्यामो हरिर्भवति ॥ १ ।। नीकी दई अनाकनी फीकी परी गोहारि ।... तजो मनो तारनाविरद् वारक वारनतारि ॥ २ ॥

    • दत्तमनाकर्णनमिह सम्यगथाभवृथा ममाव्हानम् ।।

मन्ये तारणविरुदस्त्यक्तो द्विरदं समुत्तायै ॥ २ ॥ शृङ्गारसप्तशतिका-इस ग्रन्थ में प्रत्येक दोहे का अनुवाद संस्कृत दोहे में है और टौका भी संस्कृत 4 में हैं । इस ग्रन्थ के रचयिता पण्डित , परमानन्द थे । पण्डित परमानन्द ने निज ग्रन्थ के आरम्भ में अपने गुणग्राहक बाबू हरिश्चन्द्र और पण्डित रघु- नाथ जी का तो अनेक लोकां से वर्णन किया है परन्तु अपने जन्म, वंश, स्थान आदि के विषय में कुछ में भी न लिखा केवल एक लोक में अन्य समाप्ति का संवत् दिया है उससे विदित हुआ कि इनके पितामह मुकुन्दभट्ट घे पिता व्रजचन्द्र शम्म थे और यह ग्रन्थ सं. १८.२५ में बना ॥ | वे श्लोक ये हैं - ॐ मैंने दश ग्यारह वर्ष के वय मैं इनको देखा था। मुझे ठौक कारण है कि दशाश्वमेध को सङ्गत में महन्त बावा सुमेरसिंह शाहजादा साहेब के यहां मेरे पिता जी के साथ मैं बैठा घा साहित्य की कोई बात महन्तजी ने पूछी थी मेरे पिता जी कह रहे थे इसी समय अकस्मात् बाबू हरिश्चन्द्र जी और उनके

  • साथ पण्डित परमानन्द आये पण्डित परमानन्द सँवले से थे लगढग तीस वर्ष का वय था मैली सौधोती

पहरे मैली छींट की दोहर की मिर्जई पहने वनातौ कोप ओढ़े एक सड़ौ सौ दोहरे शरीर पर डाले के थे । बाबू साहव ने पिता जी से उनके गुण कहे । सुनके सब उनकी ओर देखने लगे उनने अपनी हाथ

  • की लिखौ पोथी वगल से निकाली और थोड़ी वाच सुनाई और अपनी दशा कह सुनाई कि “मुझे--
  • ( कन्याविवाह अथवा और कोई कारण केही ठौक स्मरण नहीं } इस समय कुछ द्रव्य की आवश्यकता
  • है इसी लिये चिरपरिचम में यह ग्रन्थ बनाया कि किसौ से व्यर्थ भिक्षा न मांगनी पड़े । अब मैं इस

ग्रन्य को लिये कितने ही राजा बाबुओं के यहँा घूम, चुका कोई तो कविता के विषय में महादेव के वाहन मिले, कहीं के सभा पण्डित घुसने नहीं देते, कहीं संस्कृत के नाम से चिढ़, कोई रोझ तो भी पचा गये कोई कोई वाह वाह की भरती कर रह गये और कोई ‘अतिप्रसन्नीदमड़ीं ददाति” अब | बाबू साहब का आयय लिया है ।” घोड़ेही दिनों के अनन्तर बाबू साहब ने ५००, मुद्रा और उनके मित्र रघुनाथ पण्डित प्रकृति ने २००) यीं दोहे पीक १) इनकी विदाई की ॥ जो अनेक बॅवरछत्रधारी है। राजाबाबू न करसके, सो वैश्य वावृहरिश्चन्द्र ने किया। हो ! अव वह आसरा भी कविजन का टूट गया।