पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/४५

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। १८ . . . . भूमिका । ,,.. ... तवे सच के हित को सुगम भाषा वचन विलास । उदित ईसवी खां कियो, रसचन्द्रिका प्रकास ॥ नन्द गगन बसु भूमि १८०६ गुनि कीजै वरष विचार । रसचन्द्रिका प्रकास किय-पूज्य गुरुवार ॥” (१०) हरिप्रकाश टौका–सं. १८३४ में हरिचरणदास ने यह टीका बनाई। विहार में जिला सारन । । ( छपरा ) में परगना गोआ में चैनपुर ग्राम में ये रहते थे। इनके पिता का नाम रामधन और पिता । मह का नाम वासुदेव घा। वे लोग नवापार वढ़या के पूर्व निवासी थे । इनके इष्टदेव श्रीयुगल किशोर थे। इनका गोत्र शाण्डिल्य था । यमुनातट शृङ्गारवट में तुलसी बन में रहने वाले बाबा के प्राणनाथ के से इनने सत्सई पढ़ी थी। यौपुरुषोत्तम दास जी ने जो क्रम बँधा था उसी अनुसार दोहों का पौर्वापर्यं रतु इनने टोका की है। है। सचमुच इनकी टीका बहुतही उत्तम है । लल्लूलाल ने प्रायः भाषा और क्रमभर उलट पुलट थे किया है पर इन का अर्थ ज्य” का त्य” रख दिया है। और यदि कहीं अपनी ओर से नोनमिर्च लगाया है तो प्रायः गड़ बड़ा गये हैंॐ ॥ जमशाही दोहे और हरिप्रसाद के उल्लिखित दोहों में पाठ भेद बहुत ही है। यह ग्रन्य शाहपुराधीश श्रीमन्महाराज नाहरसिंह जू देव की आज्ञा से बाबूरामकृष्ण है। वर्मा ने निज भारतज़ीवन यन्त्रालय में १८८२ में प्रकाशित किया है। । (११) लालचन्द्रिका--लब्बलाल ( लालचन्द्र छत ) लल्ल जी लान्त आगरे के रहने वाले गुजराती औदीच्य ब्राह्मण धे र गुजरातियों से औदीच्य ब्राह्मणों का कुल पुरसपवित्र है ये प्रायः बल्लभ कुल के पुष्टिमार्गीय मन्दिरों में मुखिया होते हैं और वहस्त से भगवान की सेवा करते हैं और भोग की । को सामग्री बनाते हैं ॥ वैष्णव लोग तो प्रायः इनके हाथ की कच्ची भी खाते हैं और गोस्वामी लोग पक्की ४ थे वे प्राणनाथ नहीं हो सकते जिनका विहारी से साक्षात्कार होना छत्रसाल के यहां ठाकुर

  • ने लिखा है। क्योंकि उनकी चर्चा और हरिप्रकाश के समय में १३० वर्ष का अन्तर है। यदि उनने के

उस समय के ई• वर्ष अनन्तर पढ़ाया हो और हरिचरणदास ने टीका रचना के ६० वर्ष पूर्व पढ़ा। हो तो हो सकता है पर ऐतिहासिक दृष्टि से यह असम्भव है ॥ बाबुराधाकृष्णदास से विदित हुआ कि नागरीदास महाराज सावन्तसिंह की सभा में भी एक पूर्व निवासी सनाच्य हरिचरणदास थे, जिनने सभाप्रकाश, कविवल्लभ, ( काव्यप्रकाश का अनुवाद ) रसिकप्रिया टीका, कविप्रिया ट्रीका और सतसई टीका ये ग्रन्य वनाये, नागरीदास का जन्म सं० १९५६ औ मृत्यु सं. १८२१ में हुआ। कदाचित् ये वहीं हीं ॥

  • थे अगिरे में महत्व बलका की वस्ती ( गोकुलपुरा ) में रहते थे।