पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बिहारीसत्सई की व्याख्याओं का संक्षिप्त निरुपण् ।

  • ‘सरसरम' संवत् १७८४ वैशाख शुक्ल ६ सोमवार पुष्यनक्षत्र में समाप्त किया था । जैसा उनने स्वयं

सरसरम के अन्त में लिया है। “कारन कहत जु ग्रन्थ को सो सुनिये चित लाइ । जिहिँ विधि भेद नवीन ये कहे सुसति उपजाई ॥ फुटकर सुने कवित्त वहु धुरपद कविन प्रवीन । तिहिँ मध नाइक नाइका भेद लहे सु नवीन ॥ जे नाइक अरु नाइका कहे सु ग्रन्थान माँहिँ । हेरि रहे तहँ भेद नव परे दृष्टि कहुँ नाहिँ ॥ एक समै मधि आगरे कविसमाज को जोग । मिल्यो आइ सुखदाइ हिय जिनकी कविता जोग । तव सव ही सिाल मन्त्र यह कियो कविन चहु जानि । रचौ सु ग्रन्थ नवीन इक नये भेद रस ठानि । जिहिं विधि कवि मिल कै कही जथा जोग लहि रीति । उनहीं मैं सब सम्भव कहे भेदजुत प्रीति ।। अपनी सात परसाने सों कहे भद् विस्तार ।। लखो तु यामें न्यूनता सो कवि लेहु सुधारि ॥ कवि अनेक मति मै हुते पै मुख कवि परवीन । जाकी सम्मति स भयो पृरन ग्रन्थ नवीन । रसूतिराम से कवि सरस कान्यकुब्ज बहु जान । वाली ताही नगर को कविता जाहि प्रमान ॥ केतक धरे सु ग्रन्थ मैं वर कवित्त कविराई ।। ताही . गम्भीरता अरथ वरन दरसाइ ॥ आट रस रसभेद में जे वरने मात ठानि । राजनीति में सम्भवे ते मति लीज मानि । सतरह से चोरानवे संवत सुभ वैसाख । भयो ग्रन्थ पृन से वह छठ साल पुष सित पाखे ।