पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/५८

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विहारीसत्सई की व्याख्याओं का संक्षिप्त निरूपण । । अरुकुलकवि पदवी दई कह्यो वचन परसंस ! सदा तुमारे वंस को सानिहिँ हमरो वंस ॥”

  • लल्लून्तान ने बड़ीही चतुराई की है। उनने दोहों का क्रम तो आज़मशाही ले लिया। दोहों का

। गद्यार्थ हरिचरणदास के हरिप्रकाश को ले लिया और प्रश्नोत्तर के दोहे तथा अलङ्कार के दोहे माय: | सुरतिमिय के उठा लिये । और यह भी न लिखा कि ये दोहे सुरतिमिश्र के बनाये हैं मैरे नहीं। ग्रन्थान्त में घोड़े से दोहे काव्यभेद के विषय में लिखे हैं सो भी कृष्णकवि के हैं उनके अपने निज नहीं में है ॥ नानूलाल के मस्तिष्क की कहीं परीक्षा उत्तम नहीं उतरती और सुरतिभित्र सचमुच बड़े कवि थे । । मैंने जो ग्रन्य रेखा सो से, १८५६ चैत्र कृष्ण ११ रवि का लिखा है ॥ । - सुरतिसिथ के वनाये इतने ग्रन्थों का अनुसन्धान मिलता है ।। (१) सरमरस । (२) नखसिख । ( २ ) अलङ्कारमाला । ( ४ ) वेतालपचीसी । (५) अमरचन्द्रिका । में (६) कविप्रिया की टीका ।। विक्रमनगर के महाराज गणेशसिंह (गनसिंह = गजसिंह) के कृपापात्र नाजिर सहजराम ने कवि- मिया पर चन्द्रिका नासक टीका की है उनके लेख से विदित होता है कि इस ग्रन्य पर प्रसिद्ध कवि

  • मुरतिमिर ने टीका की थी सो सन्तकवि के पास थी वे किसी को नहीं देते थे तब नाजिरसहजराम

। ने सव के उपयोग के लिये यह टीका सं. १८३४ विजयदशमी शनि को बनाई ॥ उनका लेख यह है:--- “कवि सूरत टीका करो रही सन्तकवि पास । सहजराम नाजर सुघर कीनी जगत प्रकास ॥ संवत अठदम से बरस चौंतीसे चितधार । रची ग्रन्थ रचना रुचिर विजयदसमि सनिवार ।। सहजरामसत चन्द्रिका धयो ग्रन्थ को नाम । पढ़े गुने पण्डित नरनि उर उपजत आराम ॥” यह ग्रन्य मेरे पास कुछ लेखक का लिखा और कुछ मेरे पिताजी के स्वहस्त को लिखा है ॥ .. ये मंस्कृत के भी विहान् थे । इनने शिवदास रचित संस्कृत वेताल पच्चविंशतिका का ब्रजभाषा में में अनुवाद किया है। ( लग्नालाल ने मशहरप्रलोखां बिला की सहायता से इसी का हिन्दी अनुवाद किया में है तो धर धर प्रसिद्ध है) * } (२०) कविल्लत टीका-यह ग्रन्य कवित्त सवैयों में है। इसके रचयिता, कृष्ण कवि मयुरा के में रहनेवाने माथुर द्वारा ६ जैसे उन ने स्वयं अपने ग्रन्य के अन्त में लिखा है कि-“माथुर विप्र ककोर

  • कुल, कष्टदो कप कविनाय । भेवक हौं सव कविन को बसत मधुपुरी गाव ।”
  • ० सुरतिभित्र के जीवन के विषय में जो कुछ योग्रयर्सन साहब बहादुर ने लिखा है वह निःसन्देह

३ भूल है । ३ एने जयसिंह जयपुरवाते के कवि कहते हैं और इनके प्रथम ग्रन्य का नाम सुरसराम कहते में हैं तया इमे सङ्गीतमय कहते हैं । कदाचित् यह कोई दूसरा ग्रन्थ हो तो में नहीं जानता परन्तु सा-

  • हित्य का सरसरम अन्य तो मैंने देखा है ।

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