पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

9 . | बिहारीसत्सई की व्यायाओं का संक्षिप्त नियण ।। । (३५) जोखूरासत कुण्डलिया- सुना है कि इनने भी थोड़ी सी कुण्डलियायें बनाई थी। ये काशी के वामी थे । वड़े हनुमान जी के पण्डे धे। कुछ फारसी जानते थे। यूनानी दवा भी करते थे। इनका कवित्त

  • पढ़ना बड़ा ही धूम को था । वाबू हरिश्चन्द्र की विसभा के सभ्यों में एक ये भी थे । विद्या बहुत

| गहरो न थी, पर डौन्त डान्न वड़ा था । सं० १८६८ में ये लगढग ४५ वर्ष के थे । इनका नाम मेरी स. . | मझ में पहले पहल न्योराधाचरण गोस्वामी ने निज भारतेन्दु में कुण्डलियाकारों में लिया और कदा. 3 चित् यो देख के श्रीग्रेयर्सन् साहब और पण्डित प्रभुदयाल नै निज ग्रंथों में लिखा इसका तत्त्व यी है।

  • एक बेर केागो में भारत दु बावृहरिवन्ट्रजो के यहां में, वावृरामकृष्ण वर्मा दिज कविमन्नान्तनु और हिज

वैनो कवि प्रभृति वैठे थे और पठान की कुण्डलिया की प्रशंसा की वाते चलो, एक कोने से जोखराम जी वोन उठे क्या बड़ी बात है हुक्म हो तो मैं इससे भी उत्तम कुण्डलिया वना लाऊ बाबू हरिश्चन्द्र ने कही अच्छा लाइये, अच्छी होंगी तो फो कुरा लियो १) मैं दूंगा।” अनन्तर उनने पांच सात कुण्ड तियायें बनाई और लाये परन्तु न तो वे कुण्डलियायें वावृ साहेब ही को अच्छी लगी और न जिने जिने । । उनने दिग्वुलाई, उन सरदार, हिज मन्नान्नाल, प्रकृति, को ही अच्छी लगीं। 'बस किस्सा तमाम' । थे ।

  • वनारसे कान्निज के अध्यापक क्या सुयोग्य छात्र भी न घे यहां पण्डित प्रभुदयाल जी की भूल है कि वे |
  • वङ्गवासी संस्करण में उनै वैमा लिखते हैं ।
  • (२६) विहारीसुमेर-शाहज़ादा बाबा सुमेरसिंह कृत कुण्डलिया (खरिडत) । वे कविवर मानक स

प्रदाय के प्रधान स्थान पटना के सङ्गत के अध्यक्ष हैं। अभी तक विद्यमान हैं। कविता के बड़े मर्स अंरि दोधा हैं । इनकी कुण्डन्तिधायें लग ढग तीस दोहों पर हमने देखी हैं और कदाचित् इतनी ही। बनी हैं एक वैर उन्न विनास में इस ग्रन्थ के एक दो फार्म छपे थे पर फिर आगे पूरी वनी ही हों तो श्री दया । उनकी कई कुंडलियायें आरों प्रकाशित की जाती हैं, मेरी भवबाधा हरहु राधानागरि सोय । ज्ञातन की कई परें श्याम हरितदुति होय ॥ श्याम हरित द्युति होय होय सभ कारज पूरो। पुरयादथ सहि वार चार प- ।। दारचे रुरो ।। सतगुरु शरण अनन्य छुटि भय नम की फेरी । मनमोहन द्धित सुमे रस गति मति में भरी ॥ १ ॥ सीस मुकुट कटि काछनी कर मुरली उरमाल। एहि वानिक सो सर व सदा । विहारी लाल ॥ सदा विहारीलाल करहु चरनन को चै । तुहि त अनत न जाद कतहु प्रियतस सन मैरो । मेरो पैरो मिटै मिले रुस संरत ईस । विहरहुँ है । उनमत्त धार ब्रारज निज सीस ॥ २॥ मोर मुकुट की घन्ट्रकनि यै राजत नंदनं । मनु शशिसेवर की अकसि किय १८