पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/६९

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-- - -- ५२ | भूमिका । । गये । वस भारतवर्षीय पुरुषों के चाल व्यवहार जानने को तथा एतद्देशीय सेवा सुरुषों से मिलने को साहव को यह बहुत अच्छा अवसर मिला। जब इनमें तिरहुत के निवासियों को स्वतन्त्र भाषा बोलते देखा और देखा कि वहँ के छोटे लोग। तिरहुता भाषा छोड़ हिन्दी बँगला आदि कुछ भी नहीं बोल सकते हैं तब उन की चित्त वृत्ति इधर । । झुकौ कि जो यूरोपदेशनिवासी केवल बँगला तथा हिन्दी जान कर बड़े अधिकारी हो कर इस देश में में आते हैं उनें इन दुखिया प्रजाओं की पुकार सुनने में कितना कष्ट होता होगा ॥ बस चटपट इनने स्थिर किया कि इस देश की भाषा का कोष तथा व्याकरण बनाना ।। इस का नाम साहस है और इस का नाम वीरता है कि स्वयं भी जिस भाषा को आज तक न ना जानते थे, जिस भाषा के मुद्रित अन्य नाम मात्र को भी अप्राप्य थे उस भाषा को केवल जानने की है। नहीं किन्तु उस के व्याकरण बनाने की प्रतिज्ञा की जिसमें नवीन पुरुष सहज से समझ सकें ।। । ओः! एक हमारे देश के पण्डित हैं जो कुछ न्याय व्याकरण के खरें घोष अहं च त्वं च कर पग्धड़ बँध पण्डित बन बैठते हैं, और अपनी विद्या का यही फल समझते हैं कि अपर विद्वानों से कलह करना तथा किसी के श्राद्धादि में कुछ बँटा जाय तो निमन्त्रण की प्रत्याशा रखना और कुछ दही पेड़ा । अठन्नी धोती प्रादि मिल जाय तो विद्या का फल समझना । और कहाँ के विद्वान् कि स्वदेश में कि तनी भाषा तथा विद्या को सीख चुके हैं अब छात्रता छोड़ शासन काय करते हैं तोभी नवीन नवीन विद्याओं के सौखने के लिये वही पिपासा है और गुप्त विद्याओं को प्रगट करने के लिये महर्षियों का । सा उत्साहू है ॥ | इस भाषा को जानने तथा इस के व्याकरण बनाने में इनने किस क्रम से क्या किया यह भी सुनने

  • की बात है ३ ।

इस समये तो ग्रयर्सन् साहब केवल थोड़े से शब्दों का सञ्चय कर सके । और फिर इनें बङ्गाल में जाना पड़ा । वहीं इनमें संस्कृत और बङ्गाली भाषा में विद्वत्ता को पदवी पाई । और फिर बङ्गाल एशियाटिक सोसायटी के एक कार्यवाही सभ्य हुए और आज पर्यन्त उस समाज के उद्देश्यों का साधन कर रहे हैं। उस समय इन ने रङ्गपुर की विलक्षण बङ्गभाषा का व्याकरण बनाया और प्रकाशित किया। । सन् १८७७ में विहार में ज़िले दसँग के मधुवनी स्थान में ( Sub-divisional Officer ) अध्यक्ष हो कर आये और कुछ अधिक तीन वर्ष तक यहां रहे। बस मिथिला भाषा के व्याकरण बनाने का यही इन को पूर्ण अवसर मिला । इस समय इन के पास कईएक लेखक वेतन पाते थे और इस तिरहुत पा का जो वाक्क गान पद्य आदि मिले उस का संग्रह करते जाते थे पण्डित बबुजन झा, पण्डित बाना झा, पण्डित हलौ झा, पण्डित चन्दा झा प्रभृति के साहाय्य से, साहनी ने तिरहुत भाषा के विः ९ .९ प्रागै सन् १८७७ के प्रकरण में पूर्ण रौति से कथित है। == = = =