पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/८०

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विहारी बिहार की रचना।

। - - | प्रगट किया । मैं दूसरे दिन अति उत्साह से नियत समय पर वस्त्रादि धारण कर पुस्तवा ढूढने लगा।

  • तो उसका पता ही नहीं” सेरी तो यह दशा भई कि “ज्यों गथहारे थकित जुवारी” अथवा इस से भी।

। अधिक । पर मेरे साथियों में मैं नहीं जानता कि किसी ने भी इसे इतनी दुर्घटना ससकी होगी जैसी मुझ पर बीती ॥ कोई २ मुझे ऐसे शोक समय में ठा भी सारने लगे कोई हँसने भी लगे जिसे देख मेरा दुग्छ और भी बढ़ा । मैंने उसी क्षण जाके दीवान रायराघवप्रसादजी से कहा उन ने इस क्षण इसके ट्ठीजने को कई सिपाही भेजे चौर श्रीमहाराज को विदित किया महाराज की आज्ञा से सारी अ * योध्या ढूंढ़ गई पर ग्रन्य न मिला । और वन्दर में ले जाने को भो आशङ्की घी इस कारण इक्ष छ । मन्दिर मन्दिर भी खोजे गये पर एक पत्र भी न मिला है। मैं संझ को उदास मुंह दर्वार में गया वहां प्रसिद्ध कवि लछिराम प्रभृति उपस्थित थे वै तथा श्री

  • महाराज सैरे दुख से सह दुःख़ हुए । मैंने दो तीन कुण्डलिया कण्ठ ही सुनाई और थीमहाराज ने

सिन्नता दिखलाई परन्तु इस सभा में कई वर्ष के इस के रचित ग्रन्थ खाने का शौक ही रहा। मैं इस में रात कशी चला आया, उस समय जो शोक सुके था, मैं समझता हूं कि वैसा शोक कदाचित् न तो १० दिवाला निकलने से सेठ को होता होगा 'श्रीर न राज्य जाते रहने से राजा को होता होगा क्योंकि उन सम्पत्तियों के यथापित होने की कदाचित् फिर भी आशा रहे पर नष्ट कविता ज्यों की त्वीं फिर ।

  • कैसे हो मुफ़ी है ॥ हंसने और चिढ़ानेवाले बहुत सिले परन्तु मैरे चाचा * पण्डित राधावल्लभजी ने
  • मुझे सोसाह किया और कहा कि अब पुनः इस ग्रन्थ को बनाओ यह पहले से भी अच्छा बनेगा श्रीर

| ये ग्रन्थ का स्मरण छोड़ो । मैंने उसी क्षण पुनः स ग्रन्थ की रचना से हाघ लगाया । जितनी कु. ३० लिया बद्भवासी में छप चुकी थीं उतनी ही मुझे पूर्व की रचना की मिनी और सब नये क्रस से अरिन्भ करनी पड़ी । एम् बार रवीने के डर से मैंने इसी क्षगा दो स्वान में लिवना अारम्भ किया और एक • शिवराजविजय उपन्यास भी हैं संस्कृत में इन दिनों में लिख रहा था उस की भी दो प्रति कराने लगा। । और अब में प्रत्येक कविता दो प्रति रहें इम का दृढ़ नियम किया है। ४० १८५३ में यह ग्रन्थ पुनः मूग हुश्रा और मैं इसे ले ज्येष्ठ सास में योकोशलेश के यहां पहुंचा ॥ में श्रीमहाराज ने भेट होते ही पूछा कि उस ग्रन्थ का कुछ पता लगा या नहीं परन्तु मैंने सहर्ष विनय * में किया कि 'उस को तो एक कविता भी न मिलो परन्तु पुनरपि नवोन रूप से धन के यह ग्रन्थ प्रस्तुत है। }

  • य न मान ने अति प्रसन्नता प्रगट की और उमौ ससय तीस चान्तोस कुगन्निया मुझ मे सुनी ।
  • र पूर्व प्राधा को कि अव यह ग्रंथ शोघ्र सुद्रित होना चाहिये । सो यह बिहारीबिहार ग्रंथ श्री
  • २ढ़ाई क पा से मुद्रित हो कर यावत् रमिकों के वित्त विनोदार्थ प्रस्तुत हैं जैसे मुरल के कारण के

। तया उपरिभाजन महाराज मिर्जा जयसिंह ६ ६सेही दुम विहारोविहार के एक मात्र अवलव त्री ० ३ हाराज डुमरांव के "धारित हैं अनेक ग्रन्थों के रचयिता हैं और मेरे पिता के ममेरे भाई हैं ।। ।

  • ' ; इन्य ६ परिप मत ६ ६पना इराधीन है ।।

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