पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/९७

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बिहारीविहार । लखत लाज को तोरथो फटको ॥ सुकवि मोहि गई तिया सुनत ही वाकी मु- रली । विवस ढाँपि नहिँ सकत नाभि रोमावलि त्रिबली ॥ ६४ ॥ देखत कछु कौतुक इतै देखौ नेक निहारि ।। कबकी इकटक डटि रही टटिया अंगुरिन फारि ॥ ४२ ॥ • टटिया अंगुरिन फारि रही नहिँ परत पलक पल । साधत मनहुँ निसान । हनत जुवजनचिंत चञ्चल ॥ दामिन सी थिर भई एक घनस्याम हिँ पेखत। सुकवि विलोकहु कब की इकटक प्यारी देखत । ६५ ॥ भौंहनि त्रासति मुख नटति आँखनि स लपटाति । ऍच छुरावति कर ईंची आगें आवृति जाति ॥ ४३ ।। - आगें आवति जाति रुकति कछु झटकति सारी । बोलत धीमे बोल तर- जनी तरजत न्यारी॥ नाक सिकोरति अधर नि दाबत ठानत सौंहनि। भाँति भाँति के भाव सुकवि सतरावति भाँहनि ॥ ६६ ॥ .. | देख्यो अनदेख्यो कियो अंग अंग सबै दिखाय।। पैठति सी तन मैं सकुचि बैठी चितै लजाय ॥ ४ ॥ वैठी चितै लज़ाये नारि नटखटु नखराली। चूँघट हू की ओट तकत पुनि छिपत छवीली ॥ विाक गई हरि के हाथ नाहिँ कछु बाकी लेख्यो । दिखरा- वत तऊ लाज सुकवि प्यारी यह देख्यो ॥ ६७ ॥ . | कारे वरन डरावनौ कत आवत इहिँ गेह।

  • कै वा लरव्यो सखी लखें लगे थरहरी देह ॥ ४५ ॥

लगत थरहरी देह सुति चित भूतलि नाहीं । रोम खरे सब होत नैन ६ कै बा = कै वार। जैसे दो; ३२० * में तोस कै बा कह्यो ” ।।

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