पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/९८

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विहारीबिहार। १७ । दोऊ कॅपि जाहीं ॥ सुकवि बुलावत कौन याहि है मेरे द्वारे । मेरो जिय दर- रात देखि याके कच कारे ॥ ६८ ॥ . देवर फूल हुने जु सिसु उठे हरषि अंग फूलि । हँसी करत औषधि सखी देह ददोरनि भूलि ॥ ४६॥ देह ददोरन भूलि सखी अतिसै विलखाई । कछुक कम्प तन देखि और हू हीय सकाई ॥ तिय को मन बँधि गयो प्रेम के याके जेवर । सुकवि न जानत कोऊ अहै इहिँ कारन देवर ॥ ६६ ॥ . इहिँ कॅाटे मो पाय लगि लीनी मरात जिवाय । प्रीति जनावति भीति स मीत जु काळ्या आय ।। ४७॥ मीत जु काढ्य आय पाय गहि निजकरकज़न । धीमी चुटकी लाय म- धुर वचनन करि रञ्जन ॥ छन छन मिलवत नैन बिहँसि झुकि पुनि ऎचत तिहिं । सुकवि स्यामसुख दियो सखी धनि धनि काटे इहिँ ॥ ७० ॥ .' | पुनः ।। प्राय गये हरि आप छाँड़ि के धाम काम, सव । मो दुख स भये दुखी सखी सो कहा कहूँ अव । मैं तो चकपक होइ निज हिँ भूली देखत तिहिं ।। सुकवि न जान्यो कर्वे स्याम काट्यो काँटे इहिँ ॥ ७१ ॥ शाय गये हरि विसरि सवै मम कलहिन चातें। पीताम्बर स सेद पॉछि ३ दीने पुनि गाते । अव नहिं परिहों कबहुँ भूलि हू सखियन आँटे। लैहां नित्त गड़ाइ सुकवि निज पग इहिँ काँटे ॥ ७२ ॥ | आय आय रे कण्टक तोहि सोना मढ़वैहाँ । हीरन की लर गाँथि जुही ५ के अतर सिंह ॥ सहज मिलन जिहिँ परयो नाहिँ मुनि हूँ के बाँटे । सोई मिलये स्याम सुकवि धनि धनि इहि काँटे ॥ ७३ ॥ -- --- --- -



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पुनः ।

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