पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/११

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दिखाना अब अपने लोगों का काम न रह गया था। अपने राम तो अब उसे गँवारी समझने लग गए थे। निदान इस बीहड़ परिस्थिति में उन्हें एक ऐसी सूरत नजर आई जो उनका काम आसानी से कर गई। वह और कुछ नहीं 'दक्खिनी' नाम की एक ऐसी चीज थी जो धीरे धीरे फारसी-अरवी को अपना सब कुछ मान चली थी। उसके पेशवा वली का दिल्ली में आना था कि हिंदी के भाग्य ने पलटा खाया और वह 'भाषा' की कैद से छूट कर फारसी की गोद में जा बैठी। फारस ने उसे देखा- भाला और अच्छी तरह सँवार कर उसे अपनी जगह बिठा दिया। वही अब दिल्ली दरवार याने उर्दू की राजभाषा हो गई। राजपदवी प्राप्त हो जाने का परिणाम यह हुआ कि अब उसकी मर्यादा निश्चित कर दी गई और वह एकमात्र 'नजीबों' की चीज समझी गई। उस पर केवल उन्हीं लोगों का अधिकार रह गया जो परंपरा से कुलीन दरबारी मुसलिम याने 'खुशबयान' हों, उर्दू के रागरंग, हावभाव और नाजअंदाज से बाकिफ हों।

दिल्ली के उजड़ जाने से उर्दू किस तरह उर्दूवालों के साथ देश के नाना नगरों में बस रही थी, इसकी एक झलक सैयद इंशा के उक्त कथन में मिल गई है। सैयद् इंशा ने वहीं आगे चल कर यह भी कह दिया है कि इसी निकास तथा उद्वास के कारण लखनऊ शाहजहानाबाद हो गया और वहाँ की उर्दू प्रमाण मानी जाने लगी। लखनऊ के अतिरिक्त फैजाबाद, अजी- माबाद (पटना) मुर्शिदाबाद आदि स्थानों को भी कुछ उर्दू का