पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/१३

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बर दिल्ली से निकल कर बाहर जाते और सते रहे हैं। अस्तु, उर्दू के दरबे से बाहर झाँकने के बहुत पहले ही एक मिलीजुली हिंदुई का देश या राष्ट्रभाषा के रूप में समूचे हिंदुस्तान में प्रचार होगया था। आरंभ में अंगरेजों ने उसी को हिंदुस्तानी के पाक नाम से याद किया और उसो को लोकभाषा के रूप में अपनाया। बाद में प्रमाद या व्यामोहवश उर्दू को फारसीके नाते पनपाया और धीरे धीरे कूटनीति के सहारे उसे आसमान पर चढ़ा दिया। अब सभी लोग उसी का दम भरने लगे।

जानकारों से यह बात छिपी हुई नहीं है कि मुसलिम शासन में हिंदी फारसी के साथ साथ चलती रही और कंपनी सरकार ने एक ओर फारसी पर हाथ साफ किया तो दूसरी ओर हिंदी पर। राजभाषा की जगह अँगरेजी को दे दी तो लोकभाषा की जगह उर्दू को। मानो हिंदी भी फारसी की तरह कोई ऊपर या बाहरी चीज थी। खैर, अभी इतना जान लीजिए कि कंपनी सरकार के सामने जब भाषा का प्रश्न आया और यह सवाल उठा कि बिहार के कलक्टर साहबों की मुहर पर कौन सी भाषा और कौन सी लिपि रहे, तब चट निश्चित हो गया कि फारसी भाषा और फारसी लिपि तथा हिंदुस्तानी भाषा और नागरी लिपि। यदि विश्वास न हो तो पहली मई सन् १७९३ ई० का रेगूलेशन २ सेक्शन ५ देखिए। प्रत्यक्ष है कि फारसी भाषा तथा लिपि को तो शाही जबान होने के नाते जगह मिली पर हिंदुस्तानी भाषा तथा नागरी लिपि को केवल प्रजावर्ग की प्रेरणा से स्थान