पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/१४

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मिला। यदि वह लोकभाषा और लोकलिपि न होती तो उसका नाम हो कौन लेता? रही उर्दू की बात। अभी चुपचाप जमाने का रंग देखते रहिए। अभी 'इम्तयाज' या 'शाहीशान' के लिये फारसी बनी है। उसको दप्तर से अभी देशनिकाला नहीं मिला है।

जो लोग उर्दू को 'मुल्की जबान' कहते और हिंदी को कल की बनावटी भाषा मानते हैं उन्हें अब जरा होश में आ जाना चाहिए और यदि हो सके तो पुष्ट प्रमाणों के आधार पर अपने दावे को सही साबित कर देना चाहिए। फजूल की लाग डाट और व्यर्थ की छीन झपट से अब काम नहीं सध सकता। अब तो देशी मुसलिम भी समझ गए हैं कि हिंदी ही उनकी भी देशभाषा है। उनके सामने भी धीरे धीरे वह सारा इतिहास आ रहा है जो उनके पूर्वजों के रक्त से बना है और जो उनकी विमल वाणी से विभूषित्त है। देखिए न, कंपनी सरकार ने भी अपने विधानों में उसी हिंदी भाषा और उसी हिंदी लिपि को महत्त्व दिया है जिसकी चर्चा आज हम यहाँ कर रहे हैं और कल जिसे देश के एक छोर से दूसरे छोर तक व्याप्त देखना चाहते हैं। राष्ट्रभाषा और राष्ट्रलिपि के रूप में नागरी की प्रतिष्ठा तो बहुत पहले से हो चुकी है पर व्यवहार में अभी उसका पूरा पूरा प्रचार नहीं हो पाया है। बिहार आदि प्रांतों में भी, जहाँ उसका एकमात्र शासन था, अब प्रमाद अथवा नीतिवश उर्दू को स्थान दिया जा रहा है और एक अजीव हिंदुस्तानी का बेमेल डौल डाला जा रहा है। कारण अज्ञता, अनभिन्नता, आलस्य और कायरता के अति-