पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १३ )

रिक्त और क्या हो सकता है? कचहरी और दफ्तरों की भाषा, तो आज भी अजनबी और अजीब बनी हुई है, और लड़ाई हो रही है हिंदी और हिंदुस्तानी के लिये, मानो उनमें कोई एकता ही नहीं है!

जो हो, सबसे पहले हमें देखना यह है कि दिल्ली दरबार के अधीन कंपनी सरकार ने शासन के लिये जो विधान बनाए उनका प्रचार किस प्रकार जनता में किया गया और किस भाषा तथा किस लिपि को देशभाषा तथा देशलिपि की प्रतिष्ठा मिली। सुनिए―

"अदालत के वकील लोग और आदमी भी हजूरी आईन से वाकिफ हो सकते रहे इस वासते उस आईनों के छापे का कीताब मैं फारसी वो देसीभाखे वो अछर से उसका तरजमा फिहरीसत के ठेकाने से जीलदबनदी हो के छोटे बो बड़े के पढ़ने के वासते हरी ऐक अदालत के कचहरी में मौजूद रहेगा वो जब तक के ऊपर के लिखने बमौजिब ऐक ऐक साल के मोकररी आईनो का जीलदबनदी नहीं होऐ चाहिअै के जिस वखत्त जो आइन के तरजमा होकै छाया होऐ उपर के लिखने के तरह से उस आईन मै उसके तरजमे का ऐक ऐक कीताब हरी ऐक अदालत के कचहरी मे मौजूद रहे वो उस आईन के मौजूद रखने के बासते बाही के हरी ऐक अदालत के कचहरी मे ऐक मेज जुदा कीसी जगह से रखा जाए वो इतवार का रोज छोड के हर रोज नौ घंटा से दोपहर तीन घंटा अंगरेजी तक छोटे वो बड़े के पढ़ने के वासते मेज के उपर मौजुद रखा जाए वो ईस मेआद मे वकील लोग वो और सभी को अखतीअर हैं के उस आइन को कचहरी मे पढै वो अगर चाहै उसका तमाम ईआ उससे