पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/१९

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हक का आसन आज भी दिल्ली में ही जमा है और उसके डाक्टर जाकिर हुसेन भी वहीं के रोड़े हो रहे हैं।

आखिर काँगरेस सरकार को किसी बनावटी हिंदुस्तानी की आवश्यकता क्यों पड़ क्या अव उसका काम हिंदी याने हिंदु- स्तानी से नहीं निकल सकता था? बात यह है कि जिन ‘खुशब- यान’ लोगों की प्रेरणा से उर्दू का जन्म हुआ उन्हीं के हठ तथा दुराग्रह से आज एक अजीब हिंदुस्तानो का सृजन हो रहा है! उसके लिये यह दावा करना कि वह ‘आमफ़हम’ और ‘लोकभाषा’ है, शुद्ध पाखंड और घोर वितंडा है। उसके बिना मी न जाने कितने दिनों से हम हिंदू-मुसलिन जिस देशभाषा में बातचीत करते आ रहे हैं वही आज भी हमारे वात-व्यवहार और नित्यप्रति के कामकाज की भाषा है। हमें किसी नई भाषा की ईजाद की जरूरत नहीं है, यदि है तो उन्हीं ‘खुशवयान’ लोगों को जो सदा से ‘इम्तयाज’ के कायल रहे हैं और किसी तरह अपने आप को जनता में मिलने नहीं देते। जब उन्होंने देखा कि अब हिंदुस्तान में फारसी का राज्य नहीं रहा और हिंदी फिर चारों ओर फैल निकली तो चट उन्होंने मिलकर तरह तरह की कतर-व्योंत कर एक नई जबान ईजाद कर ली और उसका नाम उर्दू रख दिया। किंतु जिस कालचक्र के प्रभाव से फारसी को बिदाई का परवाना मिल गया उसी की कृपा से उसकी लाड़ली उर्दू को भी यह दिन देखना पड़ा। अब उर्दू उर्दू के रूप में तो जीने से रही। अदवी दुनिया अरबी और फारसी के सामने उसे क्यों पूछने लगी! रही हिंदु–२