पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/२१

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और धीरे धीरे शिक्षा के साथ लोक-व्यापक बनाने की भरपूर चेष्टा की। कारण, वही उसके शाही दरवार की लपित शिष्ट भाषा थी। फिर भी स्वयं डा० गिलक्रिस्ट तथा उनके मुमलिम मुंशियों ने स्पष्ट स्वीकार किया है कि उनकी उर्दू देशभापा हिंदी अथवा हिंदुस्तानी की ही एक शैली अथवा विभाषा मात्र है जिसका स्थान 'उर्दू-ए-मुअल्ला' अथवा शाहजहानाबाद का शाही दरबार है। दरवार की भाषा को ही प्रमाण माना जा रहा है।

कंपनी सरकार की कृपा से उर्दू के पंख ला गए और वह हिंदी पर उड़ उड़ कर धावा बोलने लगी। धीरे धीरे उसमें इतनी शक्ति आ गई कि कामकाज तथा शिक्षा का सारा भार उसी को सौंप दिया गया। कंपनी सरकार ने की प्रतिज्ञा की थी कि वह फारसी का पोषण करेगी और भरसक उसपर किमी प्रकार की आँच न आने देगी। परंतु जब स्वयं देहली दरबार से उसकी रक्षा न हो सकी तब कंपनी सरकार कहाँ तक उसके लिये सती होती? रही उसके प्रेमियों के ऊधम मचाने की बात, सो उसके लिये बड़ी चातुरी से कंपनी सरकार ने उर्दू को उनके सामने ला खड़ा कर दिया। फिर किसमें ताब थी कि जरा भी चूँ करता। उपयुक्त और उचित अवसर देख कर कंपनी सरकार में फारसी से अपना पिंड छुड़ाया और सन् १८३७ ई० में ऐक्ट बना दिया कि अब फारसी की जगह कचहरियों तथा दाफ्तरों में देशभाषाओं को चालू कर दिया जाय। किंतु यह काम सहसा न किया जाय, बल्कि धीरे धीरे लोगों का रंगढंग देख कर साव-