पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( २१ )

को जगह मिलती वह स्वभावतः हिंदी भाषा तथा हिंदी लिपि ही होती। पर आश्चर्य की बात तो यह है कि उक्त विधान के बाद धीरे धीरे अदालतों से हिंदी भाषा तथा हिंदी लिपि उठा दी गई और जगह मिली न जाने किस अजनबी भाषा और फारसी लिपि को। फारसी लिपि की रक्षा का कारण तो कुछ न कुछ समझ में आ जाता है, क्योंकि वहीं 'उर्दू' की भी लिपि है। पर इस अजनबी भाषा का भेद समझ लेना कुछ कठिन है। कारण, हम इसे आज किसी द्वेष या दुराग्रह का परिणाम तो कह नहीं सकते। रही इसके उर्दू होने की बात। उसके विषय में निवेदन है कि वह किस और कहाँ के उस्ताद की जबान है? कौन उसको जबान की सनद के रूप में पेश कर सकता है? यदि आप उसे फारसी या सरकार की उर्दू कहें तो ठीक है, पर वह किसी देश के किसी कोने को जबान तो हरगिज नहीं है। देहली या लखनऊ की उसमें वृ भी नहीं है। उसकी शान अजीब और निराली है। चाहे तो उसे काँगरेस सरकार की हिंदुस्तानी कह लें। कारण, वह शौक के साथ उसे गले लगा रही है और उसको 'आमफ़हम' बनाना अपना कर्तव्य नहीं समझती।

सन् १८३७ ई॰ के ऐक्ट का प्रभाव कुछ न कुछ भारत की सभी देशभाषाओं पर पड़ा। हिंदुस्तान की मुख्य भाषा हिंदी को इसने किस तरह बरबाद किया और उसकी जगह एक अजीब जबान उर्दू को किस तरह चालू कर दिया आदि बातों पर विचार करने के पहले कुछ डाक्टर मौलाना अब्दुलहक के इस निष्कर्ष पर