पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/२५

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है कि प्रत्येक प्रांत में वहीं की भाषा तथा वहीं की लिपि को जगह मिले। अब प्रश्न सामने आता है कि आखिर हिंदी के प्रांत में हिंदी की जगह कल की उर्दू कैसे चालू हो गई और क्यों हिंदी लिपि को बिदाई मिल गई। उत्तर बहुत आसान है। हिंद प्रांत में दुर्भाग्य से हिंदी के भीतर एक ऐसी शैली का उदय हो गया था जिसका सभी कुछ फारसी था। यदि नहीं था तो कहीं कहीं 'में' 'को' 'पर' या 'है'। अर्थात् विभक्तियों और क्रियाओं को छोड़ कर सभी कुछ फारसी हो गया था। लिपि तो बिल्कुल वही फारसी लिपि थी। अतएव हुआ यह कि कचहरी के साहबों ने अपनी आसानी और समय की बचत के लिये लिपि के प्रश्न को तो यों ही छोड़ दिया और भाषा के विषय में यह आदेश किया कि धीरे धीरे भाषा को बिल्कुल ही सुबोध और ठेठ बोलचाल की कर दिया जाय। फारसी में तनिक सा परिवर्तन कर देने से जो कचहरी की देशी जबान उर्दू बनी वह कहाँ तक 'आमफ़हम' और ठेठ कामकाज की है उसे सभी लोग जानते और पहचानते भी है। पर फिर भी उसकी रक्षा का प्रयत्न केवल इसलिये किया जा रहा है कि उससे कुछ मसिजीवियों का पेट पलता और उसमें शाही शान की गमक रहती है। खैर अभी इतना नोट कर लीजिए कि वस्तुतः यह फोर्ट विलियम कालेज की बरकत और हमारी लापरवाही का नतीजा है कि फारसी लिपि के सहारे फारसी जबान भी कुछ इधर उधर कर हमारी कचहरियों और दफ़्तरों में पड़ी है और समय आने पर 'उर्दू' की ओट में छिप जाती है। गोया वह फसीह उर्दू है।