पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/२६

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कचहरी के सभी प्राणी फारसी में अभ्यस्त थे। फारसी लिपि में लिखते रहने की उन्हें आदत हो गई थी। जब तक फारसी जवान का दौर दौरा था तब तक देशभाषा होने के कारण हिंदी भाषा और हिंदी लिपि को भी जगह मिली थी। परंतु जब फारसी की जगह देशभाषा को मिली तब उर्दू सामने आ गई और वह एक और फारसी का काम करने लगी तो दूसरी ओर हिंदी का दम भरने लगी। नतीजा यह हुआ कि धीरे धीरे हिंदी नवीसी बंद हो गई और पेट के लिये सर्वत्र फारसी लिपि का प्रचार हो गया। अस्पष्ट और भ्रमपूर्ण होने के कारण वह मसिजीवियों के अधिक काम की साबित हुई। उससे पैसा भी हाथ में आने लगा और शान भी बढ़ गई। फिर क्या था, कचहरियों और दफ्तरों में हिंदी की सूरत लक हराम हो गई।

हिंदी जनता अपनी प्यारी जवान हिंदी के लिये किस तरह तड़पती रही और समय पर उसे किस किस तरह के दिलासे और ठले मिलते रहे, इन बखेड़ों में पड़ने की जरूरत नहीं। जरूरत है उस घोषणा को भली भाँति देख लेने की, जिसके फलस्वरूप हिंदी को फिर कचहरियों और दप्तरों में स्थान मिला और बिहार में यत्र तत्र क्या सर्वत्र हिंदी लिपि दिखाई पड़ने लगी। धन्य कहिए बंगाल के लेफ्टनेंट गवर्नर श्री जार्ज केम्बल ( Campbell ) को, जिनकी पैनी प्रतिभा ने भाँप लिया कि देश का वास्तविक हित है हिंदी के प्रचार में, न कि गड़बड़ उर्दू की हिमायत में। निदान उन्होंने ४ दिसंबर सन् १८७१ ई० को घोषणा की कि-