पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/२७

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"फ़ारसी ज़बान को जो हिंदुस्तान के क़दीम हुक्मरानों की ज़बान थी कुल्लियतन् तर्क कर दिया गया है। सरकारी ज़बान की हैसियत से मेरे (लेफ्टनेंट गवर्नर बंगाल) हिंदुस्तान आने से क़व्ल यह ज़बान तर्क कर दी गई थी। मेरी ख़िदमत के इब्तदाई अय्याम में इस बात की पूरे तौर पर कोशिश की गई कि सरकारी क़वानीन में उस दोग़ली ज़बान के अल्फ़ाज़ मुस्तमल न हों जो फ़ारसी इंशापरदाज़ों को बहुत अज़ीज़ थे। मेरा ख़्याल था कि यह ज़बान बिल्कुल मतरूक हो चुकी है और हमें ऐसा करने में कामयाबी हासिल हुई है। लेकिन पिछले दिनों जब मुझे बिहार जाने का इत्तफाक़ हुआ तो मुझे यह देखकर ताज्जुब हुआ कि यह दोग़ली ज़बान फल फूल रही हैं और हमारे क़वानीन में उसके लफ़्ज़ इस्तमाल होते हैं और मदरसों में भी उसकी तालीम का इंतज़ाम है। बिहार में मैंने जो ज़बान सुनी वह निहायत ख़राब और मसनूयी थी। ऐसी मसनूयी ज़बान मैंने पहले कभी नहीं सुनी थी। मुझे यह देख कर ताज्जुब हुआ कि इस क़िस्म की ज़बान को हमारे मदारिस में देसी ज़बान (वर्नाक्यूलर) कहा जाता है। मौलवी लोग जो ज़बान मुरव्वज: ज़बान की बजाय हमारे मदारिस में सिखाते हैं वह ज़बान कहलाने की मुस्तहक़ ही नहीं। इस ज़बान के लिये 'उर्दू' का लफ़्ज़ इस्तमाल किया जाता है जो निहायत ग़ैर मौजूँ है। मैं समझता हूँ यह लफ़्ज़ बंगाल के मुहकमये तालीमात ने रायज किया है। यह एक ऐसा लफ़्ज़ है जिसके माने मुतैय्यन नहीं किए जा सकते। किताबों में चाहे इस ज़बान के मुतल्लिक कोई कुछ लिखे लेकिन हक़ीक़त यह है कि उर्दू ज़बान अह्ल दरबार और देहली की तवायफ़ों की ज़बान है। इसको मुल्क की मुरव्वज: ज़बान नहीं कह सकते। मैंने पूरा इरादह कर लिया है कि जहाँ तक मेरा वश चलेगा इस ज़बान की तालीम