पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/३१

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उसी तरह अपनाना पड़ा जिस तरह शरीफ बनने के लिये किसी हिंदू को पाजामा। हिंदुस्तानी का फारसी वेश में सामने आने का नतीजा यह हुआ कि वह दरबारी उर्दू का द्योतक हो गई और उसकी ओट में न जाने किस हिंदुस्तानी जवान की पैरवी की गई। आँख के अंधे और कान के पूरे साहबों ने तो उसी बहुरंगी या वनावटी उर्दू का गुणगान किया, परंतु श्री केन्वेल जैसे मर्मज्ञ को यह अंधेरखाता खला और उन्होंने स्पष्ट घोषणा कर दी कि वस्तुतः उर्दू कोई देशभाषा नहीं। हम जिस भाषा को हिंदुस्तानी नाम से याद करते हैं वह और कुछ नहीं फारसी खत में लिखी सरल और सर्वप्रिय हिंदी ही है। हिंदी ही हिंदुस्तान की 'आमफ़हम' जवान अथवा राष्ट्रभाषा है। बिहार में भी उसी हिंदी याने हिंदुस्तानी की शिक्षा होनी चाहिए जिसकी युक्त्यांन में हो रही है।

श्री केम्वल की सत्यनिष्ठा अति सामान्य या फसली न थी। उसकी नींव ठोस, दृढ़ तथा गहरी थी। किसी झोंके से वह हिल नहीं सकती थी। निदान उन्होंने स्पष्ट निर्देश कर दिया कि―

“मैंने ऊपर जो कुछ हिदायत दी हैं उनकी तामील सरकारी आहदहदार पर आयद होती है ताकि वह अपने दफ़ातिर में सिवाय मुरबजः ज़वान के दूसरी ज़बानका इस्तमाल न होने दें सिवाय अंगरेजी ज़वान के। अंगरेजीं ज़वान जिन दफातिर में इस्तमाल होती है वहां वह अलाहालः रहेगी। मुझे तबक्का है कि हाईकोर्ट भी इस बारे में हमारा हाथ वटायगा। मुझे पूरा यकीन