पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/३८

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स्तानी' के राज्य में रसातल क्यों भेजी जा रही है और क्यों उर्दू के नामधारी लोग सदा ने उसका विरोध कर एक ऐसी बनावटी भाषा की ईजाद में लगे हैं जो वास्तव में कहीं की भाषा नहीं बल्कि उनके दिमाग का खलल और इम्तयाज का फसाद हैं। अदालत को सरकारी जवान के इतिहास पर ध्यान दीजिए और प्रत्यक्ष देख लीजिए कि उर्दूवालों का रुख किधर है, फारसी-अरवी के प्रचार की ओर अथवा ठेठ बोलचाल की ओर? हिंदुस्तानी हिंदुस्तानियों की चीज हैं, दूसरों की नहीं। जो आज भी अपनी पीड़ी का पता किसी बाहर के भूखंड या टुकड़े से लगाते हैं और कल तक अपने को हिंदुस्तानी तक कहने में लजाते थे वे भला हिंदुस्तानी को कब अपना सकते हैं। उनका दृष्टिदोष उन्हें कब साफ देखने देगा? मजहब का नाम तो व्यर्थ ही लिया जाता है सवाल तो 'इस्तयाज' और ठसक का है।

अच्छा होगा, प्रसंगवश थोड़ा 'हिंदुस्तानी' की उस परिभाषा पर विचार कर लिया जाय जो अंजुमन तरक्की उर्दू 'हिंद' की देख रेख में अभी उस दिन पटने में गढ़ी गई है। बात यह हुई कि श्री बलदेव सहायजी ने २४ नवंबर सन् १९३६ ई० को सीनेट में देशभाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने पर जोर दिया और फलतः हिंदुस्तानी की व्याख्या भी कुछ इस प्रकार की कर दी गई जिससे बिहार को कुछ महत्व मिल गया। उसमें कहा गया―

"हिन्दुस्तानी से इस दफ़ा में वह ज़बान मुराद है जो बिहार के हिन्दू