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मुसलमान आम तौर पर बोलते हैं और जो नागरी या उर्दू रस्म ख़त में लिखी जाती है।" (उर्दू जुलाई सन् १९३७ ई० पृ० ६५६)

बिहार के विचार से तो इस परिभाषा में कोई दोष न था पर बिहार की 'उर्दू कमेटी' की दृष्टि में यह खली। निदान उसने समूचे हिंद के उर्दू-प्रेमियों को जुटा कर निश्चित कर दिया कि—

"हिन्दुस्तानी से मुराद वह ज़बान है जो इस मुल्क की हिन्दू मुसलमान कौमों के मेलजोल और एक दूसरे की तहज़ीब से मुतासिर होने से बनी है; जिसे शुमाली हिन्द के बाशिन्दे आम तौर से बोलते हैं, और हिन्दुस्तान के दूसरे हिस्सों के रहने वाले समझते हैं; जो अरबी, फ़ारसी और संस्कृत के नामानूस लफ्ज़ों से ख़ाली है; और जो उर्दू, देवनागरी या किसी दूसरे रस्म-ख़त में लिखी जाती है।" (वही, पृ० ९९१)

हिंदुस्तानी की प्रकृत परिभाषा में 'कौम', तहज़ीब और 'नामानूस' शब्द यों ही नहीं रख दिए गए हैं बल्कि वस्तुत: ये ही तीन गुण ऐसे हैं जिनसे भविष्य में हिंदुस्तानी की सारी सृष्टि होने वाली है। किंतु विकट प्रश्न उपस्थित यह हो जाता है कि जब कौमों और तहज़ीबों का मेलजोल हो गया और उसका एक रूप भी सामने आ गया तब उनकी अलग दुहाई देने की जरूरत क्या रही। परिभाषा में उनकी जरूरत क्यों पड़ी? वही बात 'नामानूस' पर भी लागू है। अब इस 'नामानूस' का फैसला कौन करेगा? देहली दरबार या लखनऊ सरकार? 'शुमाली हिंद के बाशिंदे' या 'दूसरे हिस्सों के रहने वाले?' शहरों के 'नजीब' या गाँव के 'भैया'? भाई, सच्ची बात तो यह है कि यह 'तारीफ़' नहीं