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नुनलमान आम नोर पर बोलते हैं और को नाम साउद रस्म भवन में
लम्ब हानी है।" (उद जुलाई मन्द १५.३७ ई० ०"}
बिहार के विचार से तो इस परिभाषा में कोई दोष न था
पर बिहार की उर्दू कमेटी की दृष्टि में यह खली । निदान उसने
समत्र हिंद के उर्दू प्रेमियों को जुटा कर निश्चित कर दिया कि-
"उन्नुम्दानी ले मुराद बद जवान है . दर मुकन्द मुसलमान
ॐन के मेलजोल और एक दूसरे की तहजीब से सुना निर हान्न ने पर्न है।
में शुमाली हिंन्द के बाशिन्दे अमनौर में बोलते हैं, और हिन्दुस्तान के
दूसरे हिस्सों के रहने वाले समझते हैं: जे अरब, कार और संन्चत के
मनग लाल ने खलं है और उन देवनागर या किसी दूसरे साल
सत में लिख जाती है। वही पृ. ६६
हिंदुस्तानी की प्रकृत परिभाषा में 'कौम, तहजीब और
'नामानूस' शब्द यों ही नहीं रख दिए गए हैं बल्कि वस्तुत: ये ही
तीन गुण ऐसे हैं जिनसे भविष्य में हिंदुस्तानी की सारी सृष्टि
होने वाली है। किंतु विकट प्रश्न उपस्थित यह हो जाता है कि
जब कौमों और तहजीवों का मेलजोल हो गया और उसका एक
रूप भी सामने आ गया तब उनकी अलग दुहाई देने की जरूरत
क्या रही। परिभाषा में उनकी जरूरत क्यों पड़ी? वही बात
'नामानूस' पर भी लागू है। अब इस 'नामातूस' का फैसला
कौन करेगा ? देहली दरवार या लखनऊ सरकार "शुमाली
हिंद के बाशिंदे' या दूसरे हिस्सों के रहने वाले शहरों के 'नजीन
या गाँव के 'भैया" भाई, सच्ची बात तो यह है कि यह तारीफ' नहीं
पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/३९
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