पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/४०

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'नाकीद' है। इसमें इस बात पर जोर दिया गया है कि 'कौम' 'तहजीब' और 'नामानूस' की 'इम्तयाज' हिंदुस्तानी के लिये अनिवार्य है। अर्थात् हिंदुस्तानी वह जबान है जो इस्तयाजियों की कैद में रहे और कहीं भूले भटके किसी हिंदुस्तानी के यहाँ पहुँच जाय। बस, इसके आगे वह और कुछ भी नहीं है।

हिंदुस्तानी की जब एक निराली परिभाषा गढ़ ली गई तब इस बात की चिंता हुई कि उसका एक निराला शब्दकोप भी तैयार कर लिया जाय! बिहार की भूमि इसके लिये भी उपजाऊ दिखाई पड़ी। बिहार के माननीय शिक्षा मंत्री डाक्टर सैयद महमूद की कृपा से २२ मार्च सन् १९३८ ई० को पटना विश्व- विद्यालय के सिंडिकेट के कमरे में एक बैठक हुई जिसके सभा- पनि डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद थे। उसमें हिंदुस्तानी के विषय में कहा गया कि―

“हिन्दुस्तानी बह ज़बान है जो शुमाली हिन्द में मामूली वोलचाल में और आपस के मेल मिलाप के वक्त़ इस्तमाल की जाती है और जो हिन्दी और उर्दू की मुदतरक बुनियाद हैं” (उर्दू, अपरैल सन १९३८ ई० पृ० ४५५

बिहार की उदार 'हिंदुस्तानी कमेटी' को सच्ची लगन को ता देखिए कि तुरंत उसने एक 'हिंदुस्तानी लुग़त' का बीड़ा उठा लिया और चट उसका सारा भार सौंप दिया हिंदुस्तानी के विधाता डाक्टर मौलाना हक को। याद रहे यह वही मौलवी हक साहब हैं जिनकी कोशिशों से 'अंजुमन तरक्की उर्दू' कायम हुई और वह यहाँ तक पसरी कि उसके घर हैदराबाद में तो हिंदी और देश की